Thursday, August 27, 2009

मनोज कुमार झाक दू गोट हिंदी कविताक मैथिली अनुवाद


मनोज कुमार झा, हिंदी कविताक टटका पीढ़ीक चर्चित नाम थिक । सम्वेद पत्रिकाक हिनकर हिंदी कविता पर केन्द्रित एकगोट पुस्तिका हालहि मे बहरायल अछि । कविता में दार्शनिकताक गहींर प्रभाव । मनोजक कयल उल्लेखक अनुसार नब्बैक दशकक पूर्वार्धहि सँ देशक शीर्षस्थ दार्शनिक लोकनि सँ पत्रक माध्यमे संपर्क मे रहल छथि । हिंदी कविता जगत केर प्रखर युवा हस्ताक्षर बनि उभरय वाला मनोज कहैत छथि जे हुनका मातृभाषा सँ विशेष नेह छैन्हि । मैथिली मे लगातार लिखैत रहलाक बावज़ूद प्रकाशनक उपयुक्त मंच नहि भेट सकबाक कचोट छन्हि । प्रस्तुत अछि - कथन (जुलाई -सितम्बर ,2008) मे प्रकाशित हिनकर दू गोट हिंदी कविताक मैथिली अनुवाद । दोसर कविता स्थगन लेल कवि कें 2009 केर प्रतिष्ठित भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार !! अनुवाद केने छथि  कुमार सौरभ ।

एहि कात सँ जीवन
एतय तं मात्र
पियास पियास पानि
भूख भूख अन्न
साँस साँस भविष्य
ओहो तं जेना -तेना
माटि पर घसि घसि कें देह

देवता
तरहत्थ पर देय कनय ठाम
कुडिऔनय अछि लालसाक पाँखि
बचा क' राख'
वा टांग तर दाबि
अपन दुर्दिन लेल

घर कें किया धांगि रहल छंय
इच्छाक नंगरा प्रेत
हमरा सबहक संदूक मे
तें मात्र सुइयाक नोक भरि जीवन

सुनबा मे आयल अछि
आकाश खोलि देने अछि
सबटा दरबज्जा
सोंसे ब्रह्माण्ड आब
हमरे सभहक
चाही तें सुनगा सकैत छी
कोनो तारा सं अपन बीड़ी

एतेक दूर पहुँचि पेबाक
सतुआ नहि एम्हर
हमरा सभकें तें
कनेक हवा चाही आर
कि डोलि सकय ई क्षण
कनेक आर छाह
कि बान्हि सकी अहि क्षण केर डोरि ।

स्थगन
जेठक धह धह दुपहरिया मे
जखन
टांग तरक ज़मीन सं
पानि धरि घुसकि जैत अछि
चटपटाइत जीह ब्रह्माण्ड कें घसैत अछि
ठोप ठोप पानि लेल
सभटा लालसा कें देह मे बान्हि
सभटा जिज्ञासा कें स्थगित करैत
पृथ्वी सं पैघ लगैत अछि
गछ्पक्कू आम
जतय बांचल रहैत अछि
ठोंठ भीजबा जोगर पानि
जीह भीजबा जोगर सुआद
आ पुतली भीजबा जोगर जगत
चूल्हि केर अगिला धधरा लेल पात खड़रैत
पूरा मसक जिह्वल स्त्री
अधखायल आमक कट्टा लैत
गर्भस्थ नेनाक माथ सोहराबैत
सुग्गाक भाग्य पर विचार करैत अछि
निर्माणाधीन नेनाक कोशिका सभ मे
छिडिआयल अनेको आदिम धार मे
चूबैत अछिआमक रस
आ ओकर आँखि खुजैत जैत अछि
ओहि दुनिया दिस
जतय सबसँ बेसी जगह छेकने अछि
जिनगी कें अगिला साँस धरि पार लगा पेबाक इच्छा

कपारक ऊपर सं एखनहि
पार भेल छैक हवाई जहाज
उडैत कालक गर्जनाक संग
तकलकै उत्कंठित स्त्री
अभ्यासें सम्हारैत आँचर
जकरा फेर सं खसि पड़बाक छलहि
उठल तें छलहि नज़रि
अन्तरिक्ष धरि ठेकबा लेल
मुदा चित्त मे पैसि गेलैक
अधखायल आम

कोनो आर क्षण रहितैक त' क्यो बाजितै-
शिशु चन्द्र बौनय अछि मुंह
तरल चान चूबि रहल अछि

एखन तें सौंसे सृष्टि सुग्गाक लोल मे
कम्पायमान !!!!!!

2 comments:

  1. manoj ker kichhu maithili kavita uplabdha kara saki ta aar nik lagat!

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  2. पहली पंक्ति से दूसरी, दूसरी से तीसरी, चौथी, पाँचवीं--- पढत चला गया, एक ग्राम्य सुगन्धी के पीछे मानों खिचता जा रहा हूँ ! थोड़ी नॉस्टेल्जिया, थोड़ा पहचाना हुआ सौन्दर्य, शब्दों में पिरोया हुआ भावों और स्थितियों का सतरंगी पट्ट; शायद कविता यही है. समझने की जहमत उठाने की जरूरत नहीं, इसे पढकर जो संगीत मन में घुल गया वही तो उपलब्धि है कविता की. मैं एक अकादमिक पाठक नहीं हूँ, बस, मन को जो भा गया उसी का पाठक बन जाता हूँ.

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