Wednesday, June 1, 2016

परिचायिका / उमापति : भीमनाथ झा

 इंटरनेट पर मैथिली साहित्कार सबहक जीवन आ कृतित्व पर विवरणात्मक लेख प्रायः अनुपलब्ध अछि। पाठकशोधार्थी आ विद्यार्थी सबहक लेल ई स्थिति बहुत असुविधाजनक अछि । भीमनाथ झाक कृति 'परिचायिका' एहि दिसा मे नीक मदति कसकैत अछि। 'मैथिली मंडनसमय समय पर हुनक एहि कृति सँ साहित्यकार लोकनिक परिचय प्रस्तुत करबाक प्रयास करत। एकरा परिचायिका’ श्रृंखलाक अन्तर्गत प्रस्तुत कएल जायत। 
ध्यान राखी जे 'परिचायिकामूलतः सूचनात्मक लेख सबहक संकलन थिक। इहो ध्यान राखी जे एकर तथ्यक संगहि दृष्टिकोण केँ अंतिम नहि मानल जा सकैछ। अपन मत सुनिश्चित करबा लेल आनो स्रोत सबहक मदति लेबाक चाही। 'मैथिली मंडन' पर कयल जा रहल प्रस्तुति त्रुटिहीन होइ, एहि बातक ध्यान राखल जाइत छैक, मुदा प्रामाणिक आ त्रुटिहीन संदर्भक रूपमे मूल किताबेक उपयोग कएल जेबाक चाही।  
एहि किताबसँ कोनो सामग्री केँ प्रस्तुत करैत 'मैथिली मंडन'क एहि सँ सहमत भेनय अनिवार्य नहि  अछि। एकर प्रस्तुति क पाछाँ विशुद्ध रूपें अकादमिक खगता केँ पूरा करबाक भावना अछि। एहि मे अपन व्यावसायिक हित साधब वा किनको व्यावसायिक अहित करबाक कोनो दुर्भावना निहित नहि अछि । एहि प्रस्तुतिक लेल लेखकसँ अनुमति लेल गेल छैक, तथापि कोनो सम्बद्ध पक्षकेँ जँ कोनो तरह तरहक आपत्ति होइन्ह, तँ ओकर निपटारा 'मैथिली मंडन'क प्राथमिकता होयत। 
एतय  'परिचायिका'  सँ उमापति उपाध्याय आ हुनक कृतित्व पर केन्द्रित आलेख अक्षरशः प्रस्तुत कएल जा रहल अछि।

उमापति
[UMAPATI]
[पृष्ठ-17]

उमापति उपाध्याय मैथिली साहित्यमे कविसँ बेसी नाटककारक रूपमे विख्यात छथि । हिनक दू गोट उपाधि प्रसिद्ध अछि- ‘कविपण्डितमुख्य’ आओर ‘सुमति’ । प्रथम उपाधिसँ ई द्योतित होइछ जे ई कवि आ पण्डितमे मुख्य छलाह, अर्थात अग्रगण्य कवियो छलाह, मान्य विद्वानो । दोसर उपाधि हिनक शिष्टता, सौजन्य आ सामाजिक मान्यताक परिचायक छल । ई कोइलख (मधुवनी) गामक निवासी छलाह ।
          हिनक कविताक पोथी कोनो उपलब्ध नहि अछि । उपलब्ध अछि एकमात्र कृति, से थिक नाटक, जकरा कीर्तनिया नाटक कहल जाइछ, नाम थिक ओकर ‘पारिजात-हरण’ । पारिजात-हरणक गद्य-पद्य संस्कृत आ प्राकृतमे अछि, बीच-बीचमे गीत अछि मैथिलीमे, जकर संख्या एकैस अछि ।
       अन्य प्राचीन कवि जकाँ हिनको समय विवादास्पद रहल । एखनहुँ धरि विभिन्न विद्वान लोकनिक बीच एक्यमत्य नहि भेल अछि ।एखनहुँ धरि विभिन्न विद्वान लोकनिक बीच एक्यमत्य नहि भेल अछि । प्रो. सुरेन्द्र झा ‘सुमन’ हिनक समयक प्रसंग प्रचलित विभिन्न मतकेँ सूत्रबद्ध करैत ‘पारिजातहरण’क भूमिकामे लिखैत छथि – “डॉ. ग्रियर्सन मिथिलेश-हरिहरदेव दूहूक एकवाक्यता करैत कर्णाटवंशीय महाराज हरिसिंहदेव (1305-24)क आश्रयमे हिनक स्थिति मानैत छथि । पण्डित चेतनाथ झा अपन भूमिकामे नेपाल स्थित सप्तरी परगनाक अन्तर्गत मकमानीक हिन्दूपति (17म शताब्दी) अभिधानधारी एक माण्डलिक राजाक आश्रित पण्डित रूपमे उमापतिक परिचय दैत कहैत छथि जे- एतय मैथिल विद्वानकेँ प्रश्रय भेटैत छल ओ एही सप्तरीमे विद्यापति सेहो ‘लिखनावली’क रचना कयने छथि । बाबू भोलालालदास ‘यवनवनच्छेदन-कुठारकरवालेन, विष्णोर्दशमावतारेण हरिहरदेवेन’ आदि विशेषण-विशेष्यक सार्थकता विजयनगरम राज्यक संस्थापक हरिहरदेव-बुक्कदेव (14 श.)क संग कहैत हिन्दुपति-पदेँ हुनकहि आश्रयक संकेत दैत छथि । डॉ. जयकान्त मिश्रक मतेँ उक्त हिन्दूपति बुन्देलखण्डक नरेश महाराज छत्रसालक प्रपौत्र गढ़मण्डलक राजा हिन्दुपति (17 श.) छथि, जनिक राजगुरू उमापति उपाध्याय छलाह । केओ ‘हम अति बूढ़ नही मरखाहि’क किंवदन्तीक आधार पर गुरू गोकुलनाथक समयमे हिनक स्थिति मानैत महाराज राघवसिंह (1704-1740, अठाहरम शताब्दी)क समय स्थिर करैत छथि । एहि विवादास्पद प्रश्नक जटिलता तखन आरो बढ़ि जाइछ जखन ‘केटेगोरस केटेगोरप’ केर सूची निबंधक अनुसार उमापति नामक चौदह गोट कविक उल्लेख भेटैछ ।”
अपन मान्यताकेँ विभिन्न प्रमाणसँ पुष्ट करैत श्री ‘सुमन’ आगाँ कहैत छथि-
पारिजात-हरणक किछु क्रियापद एवं नामपदसँ चौदहम शताब्दीक मैथिली अवहट्ट रचनाक साम्य भेटैछ । तखन की क्षति जे उमापतिकेँ हरिसिंहदेवक सभासदक मान्यता देल जाय ?
          डॉ. रामदेव झाक अनुसार “सोलहम शताब्दीक तेसर चरण ओ सतरहम शताब्दीक प्रथम तीन चरणक मध्य-आगाँ-पाछाँ किछु वर्ष छोड़िक’- उमापतिक –
[पृष्ठ-18]
- जीवनकाल रहल होयतनि । कोनहु स्थितिमे उमापतिक जीवन-कालकेँ 1570 ई.सँ पूर्व ओ 1670 ई,क पश्चात नहि खीचल जा सकैत अछि । ओना दू चारि वर्षक अन्तर जे हो तँ से नगण्य थिक ।”
          पारिजात-हरण- ई उमापतिक एकमात्र उपलब्ध लघुकाय नाटक थिक, जाहिमे एकैस गोट मैथिली गीत, उनैस गोट संस्कृत-श्लोक तथा संवाद संस्कृत ओ प्राकृतमे अछि । मैथिली-गीत आ संस्कृत-श्लोक पाण्डित्यपूर्ण तँअछिए जे कविक विलक्षण सर्जनात्मक प्रतिभासँ मंडित सेहो अछि ।  एकर “कथानक हरिवंशपुराणक 124-35 अध्यायक आधार पर अछि, भागवत (10 स्कं. उत्त.) मे सेहो एहि अंशक कथासूत्र भेटैछ । पौराणिक घटनामे जत’ इन्द्रक संग प्रद्युम्न युद्धमे जाइत छथि तत’ नाटकमे कृष्णक संग अर्जुन दैत छथि ।” डॉ. जयकान्त मिश्र कीर्तनियाँ नाटक मध्य एकर बड़ महत्वपूर्ण स्थान देने छथि ।
          एकर कथावस्तु अत्यंत छोट अछि ।
          नारद स्वर्गसँ पारिजात नामक फूल आनि कृष्णकेँ उपहार दैत छथि । ओ रुक्मिणी केँ द’ दैत छथिन । एहिपर छोटकी महारानी सत्यभामा कुपित भ’ जाइत छथिन । हुनक प्रेमक वशीभूत श्रीकृष्ण स्वर्ग जाक’ इन्द्रसँ युद्ध क’, पारिजात वृक्षक क’ हरण क’ आनि सत्यभामाकेँ अर्पित करैत छथिन । बस कथानक एतबे टा अछि । सम्पूर्ण नाटकमे एकरे पल्लवित कयल गेल अछि ।
मोटामोटी पढ़ला उत्तर यद्यपि ई वीररस-प्रधान नाटक बुझना जाइछ, किन्तु कथानकक मूल भावना पर दृष्टिपात कयने स्पष्ट भ जाइछ जे ई श्रृंगाररस- प्रधान नाटक थिक ।
एहि नाटकक महत्व एकर मैथिली गीत ल’क’ विशेष अछि । उमापतिक गीत सूक्ष्म कल्पना ओ परिपक्व कवित्वक परिचायक थिक । द्रष्टव्य-
हरि सोँ प्रेम आस कय लाओल, पाओल परिभव ठामे
जलधर छाहरि तर हम सुतलहुँ, आतप भेल परिणामे
सखि हे!  मन जनु करिअ मलाने
अपन करम फल हम उपभोगव तोहें किअ तजह पराने
पुरूष पिरित रिति हुँनि जँओ बिसरब तइयो न हुनकर दोसे
कतेक जतन धरि जओ परिपालिओ साप न मानय पोसे
कबहु नेह पुनु नहि परगासबफल अपमाने
बेरि सहस्र दश अमिअ भिजविअ कोमल न होअ पखाने
गुरू उमापति हरि होएत परसन मन होएत अवसाने
सकल नृपति हिन्दूपति जिउ महारानि विरमाने
एहि गीतसभपर दृष्टिपात कयलासँ ज्ञात होइछ जे “उमापति काव्य भाव ओ भाषा दुहूमे पाण्डित्यपूर्ण अछि । रचनाशैलीमे विद्यापतिक अनुकरण रहितहुँ, विद्यापतिक भाषामे जे सरलता अछि, अथवा ओहिमे जे भावनाक उद्दाम प्रवाह अछि तकर निर्वाह उमापति नहि क’ सकलाह अछि ।यैह कारण थिक जे विद्यापतिक पद जत’ सकल–सा धारणक जीहपर विराजमान अछि, तत’ उमापतिक पद पण्डितेक मण्डलीमे घुरियाक’ रहि गेल अछि ।
[पृष्ठ-19]
उमापतिक गीत भनहि जनसाधारणक बीच लोकप्रिय नहि रहओ, किन्तु विद्वान रसिक मण्डलीक बीच रसक बरिसाते आनि दैछ । विरहिणी नायिकाक वियोगव्यथाक एहन सूक्ष्म विश्लेषण साहित्यमे तकलहुँ भेटत वा नहि । सामान्य अवस्थामे जैह वस्तु उद्दीपनक साधन बनैछ, सैह सभ विरहिणीक लेल अरुचिकरे नहि अपितु प्राण-घातक भ’ गेल अछि । नायिकाक ओहन अवस्थाक कौशल-पूर्वक वर्णन क’ दूती नायकक सुपुरुषत्व केँ चुनौती दैछ ।
          कि कहब माधव तनिक विशेषे । अपनहुँ तन धनि पाव कलेशे ।
          अपनुक आनन आरसि हेरी । चानक भरम काँप कत बेरी ।
          भरमहु निय कर उरपर आनी । परसे तरस सरसीरूह जानी ।
          चिकुर-निकर निय नयन निहारी । जलधर जाल जानि हिय हारी ।
अपन वचन पिक-रव अनुमाने । हरि हरि तेहु परि तेजय पराने ।
माधव आबहु करिअ समधाने । सुपुरूष निठुर न रहए निदाने ।
सुमति उमापति भन परमाने । माहेसरी देइ हिन्दूपति जाने ।
तहिना नायिकाक मान-मोचन करबा लेल नायक उक्ति नारी-मनोविज्ञानक सूक्ष्म व्याख्या प्रस्तुत करैत अछि-
अरुण पुरुब दिस बहलि संगर निशि गगन मलिन भेल चन्दा
मुन्दि गेलि कुमुदिनि तइओ तोहर धनि मून्दल मुख-अरविन्दा
कमल वदन कुवलय दुहु लोचन अधर मधुरि निरमाने
सगर शरीर कुसुम तुअ सिरजल किए तुअ हृदय-पखाने
असकति कर कंकण नहि पहिरसि हृदय भार भेल भारे
गिरि सम गरूअ मान नहि मुंचसि अपरूप तुअ बेबहारे
अबगुन परिहरि हरषि हेरु धनि मानक अवधि विहाने
हिमगिरि-कूमरि चरण हृदय धरि सुमति उमापति भाने
परिजातहरणक गीतसभक विशेषता प्रो. सुमनक निम्नलिखित पंक्तिमे एक्के ठाम जगजियार भ’ गेल अछि- “प्रत्येक गीत प्रसंगोपात्त रहितहुँ रसोज्ज्वल मुक्तक गीत कहल जायत । रसविन्यासक संगहि गेयधर्मितासँ गीतसभ ओतप्रोत अछि, रसोपयुक्त राग-संगीतसँ युक्त अछि । वसन्तरागमे उद्यान एवं प्रेमवर्णन, मालव ओ विभासमे मान-विरह, आशावरीमे भक्ति-प्रार्थना, विरह-अभिनिवेशमे केदारराग सर्वथा रसोपयुक्त भेल अछि । एकर अतिरिक्त राजविजय, ललित, मल्हार, बड़ारी, नट, पंचम-एतबा राग प्रयोग एहिमे भेटैछ । एहिमे संगीतक संगहि नृत्यकलाकेँ सेहो उच्च स्थान देल गेल अछि ।...भाषाक दृष्टिएँ कवि-पण्डित उमापतिक रचना उत्यन्त परिमार्जित, अलंकृत, संगहि सरस सुबोध !”
पारिजातहरणक विशिष्च साहित्यक मूल्यक प्रसंग डॉ. जयकान्त मिश्रक ई कथन द्रष्टव्य- “It is one of the best Maithili plays of the ‘Regular’ type, It is remarkable for its literary merits and provides a very good entertainment. The poet is well-constructed events follow one another in a necessary connection”
          पारिजातहरणक अतिरिक्तो उमापतिक किछु मैथिली-पद प्राप्त अछि, सेहो काव्यकलाक दृष्टिएँ महत्वपूर्ण अछि ।

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प्रकाशक : भवानी प्रकाशनमुसल्लहपुरपटना-800006
सर्वाधिकार : भीमनाथ झा
परिवर्धित द्वितीय संस्करण : 1985
मुद्रक : मुरलीधर प्रेसपटना-800006

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