Tuesday, May 31, 2016

बिहार मे मिथिला भाषाक स्थान / रमानाथ झा + पं. भुवनेश्वर झा

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रमानाथ झा रचनावलीक तेसर खंडक भूमिकामे संपादक मोहन भारद्वाज सूचना देनय छथि जे ‘बिहार मे मिथिला भाषाक स्थान’ लेख असगरे रमानाथ झा नहि लिखने छथि अपितु ओ आ पंडित भुवनेश्वर झा मिलि के ई लेख तैयार केनय छलाह । 1929 मे प्रकाशित एहि लेखक कतेको कारणसँ ऐतिहासिक महत्व छै , ई लेख पढ़ैत स्पष्ट होएत जायत । स्वतंत्रतासँ करीब दूई-ढाई दशक पहिने मैथिली भाषाके हिन्दीक बोली सिद्ध करबाक संगहि मिथिलाक संस्कृति आ मैथिल अस्मिताकेँ नकारबाक प्रयास आ प्रचार जोर पकड़ि चुकल छल । प्रतिवाद स्वरूप जे लिखल जा रहल छल ई लेख तकरे प्रतिनिधित्व करैत अछि ।
एहि लेख केर किछु अंश आलोचनोक विषय अछि । मैथिल संस्कृतिकेँ शुद्ध सनातनी आचारसँ बान्हल समाजक व्यवहारक रूपमे रेखांकित कए एकर महिमामंडनक प्रयास मैथिल संस्कृति आ समाजक प्रति समग्रतामूलक दृष्टिकोणक अभावक परिचायक थिक । एहि लेख केर कोनो अंशक आलोचना करैत काल एहू बातक ध्यान राखैक चाही जे ई लेख एकटा लेख श्रृंखलाक प्रतिक्रियामे लिखल गेल छल आ दोसर ई जे एकर पृष्ठभूमिमे 1929क समाज छल । पंडित भुवनेश्वर झाक विषयमे जानकारीक अभाव अछि मुदा कमसँ कम रमानाथ झाक बादक लेख सबहक आधार पर कहल जा सकैछ जे समयक संग हुनक दृष्टिकोण बेस परिपक्व आ समग्रतामूलक होइत गेलेन्हि ।
कहल जा सकैछ जे मैथिली भाषा अस्मिताक संदर्भक कोनो स्तरीय अकादमिक बहस लेल एहि लेखक महत्व असंदिग्ध छैक । 
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बिहार मे मिथिला भाषाक स्थान
रमानाथ झा + पं. भुवनेश्वर झा

[पृष्ठ संख्या-14 ]
अनारम्भो हि कार्याणां प्रथमं बुद्धिलक्षणम् ।
प्रारब्धस्यान्तगमनं द्वितीयं बुद्धिलक्षणम् ।।
मैथिलसमाज मे अकर्मण्यता तया अस्तव्यस्तताक जेहन प्राधान्य अछि तेहन आन समाज मे दृष्टिगोचर नहि होएत । प्राय: सामाजिक जीवनक महता केँ बुझनिहार बहुत थोड़ व्यक्ति भेटताह । वैयक्तिक स्वार्थक समक्ष सामाजिक कल्याणक अवहेलना जाहि रूपें हमरा लोकनि के रहल छी से सबकाँ विदित अछि । व्यक्ति तथा समाज मे अन्योन्याश्रय सम्बन्ध अछि । एकक अस्तित्व पर दोसरक जीवन निर्भर अछि । समाज एक प्रकारक अंग थिक । जेना स्थूल शरीरक एक अवयव पर आघात भेला सँ सम्पूर्ण शरीर मे पीड़ाक संचार होइत अछि, तहिना व्यक्ति क दुख सँ समष्टि दुःखित तथा पीड़ित होइत अछि । यावत् धरि शरीर मे चेतना क संचार अछि तावत्पर्यन्त शरीरक प्रत्येक अवयव समष्टि रूप सँ शरीरक रक्षा मे तत्पर रहैत अछि । जैखन शरीर चेतना-विहीन भै जाइत अछि तैखन कर्मशीलताक स्रोत सर्वदाक हेतु रुकि जाइत अछि । कार्यशीलताक दोसर नाम जीवन अछि । जाहि समाजक व्यक्ति सामूहिक सुख साधनार्थ थोड़बो त्याग नहिं करैत छथि ताहि समाजक नाश अवश्यम्भावी अछि । एहन समाज के मृतप्राय बुझक चाही । मैथिल-समाजक अवस्था एखन अत्यन्त दयनीय अछि । समाजक कल्याण-साधनार्थ अनेक चेष्टा कैल गेल परंच समाज क कुम्भकर्णी निद्रा एखन धरि भंग नहिं भेल । एकर की कारण भै सकैत अछि । प्रश्न क उत्तर अत्यन्त सरल अछि । हमरा लोकनि सामाजिक उन्नति के आत्मोन्नतिक साधन नहिं बुझैत छी । प्रयत्न मे सफलता नहिं भेटवाक दोसर कारण ई अछि जे हमरा लोकनि में समुचित अध्यवसाय नहिं अछि । नीतिकारक जे श्लोक हम ऊपर उद्घृत कैने छी ताहि श्लोक मे केहेन उपयोगी शिक्षा अछि । मैथिलसमाज मे कोनो वस्तुक कमी नहि । यदि कोनो वस्तुक अभाव अछि तँ ओ अछि सबल संगठन क हेतु दृढ संकल्प । समाज क शक्ति स्रोत विभिन्न मार्ग मे प्रवाहित भै रहल अछि । उद्योग एहन हैबाक चली जे समस्त स्रोत एक दिशा में प्रवाहित हो । मैंथिलसमाज कैं एकताक सूत्र में आबद्ध करबाक –
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- अनेक साधन अछि । एहि क्षुद्र लेख मे हम मिथिला भाषाकक महत्ता पर प्रकाश देम चाहे छी । कारण जे भाषाक अस्तित्व पर समाज क जीवन निश्चित अछि ।
मिथिला-भाषा में केहन जीवनी शक्ति अछि एकरा व्यक्त करबाक ततेक प्रयोजन एहि लेख मे नहिं । मैथिल कोकिल विद्यापतिक अमर वाणी सँ जे भाषा लालित तथा वर्द्धित भेलि अछि तकरा गौरव तथा भाषा-सौष्ठव मे अविश्वास कैनिहार अवश्य दयाक पात्र छथि । विहार में यदि कोनो भाषा प्रमुख स्थान क अधिकारिणी अछि तँ ओ अछि मिथिला भाषा । परन्तु दुर्भाग्यक विषय अछि जे हमरा लोकनि क अकर्मण्यता क कारणे एखन धरि मिथिला भाषा अपन न्याय्य स्थान कैँ नहि ग्रहण कैलक । बिहार में मिथिला-भाषा-भाषीक की संख्या अछि एकरा प्रमाण में हम Census of India, 1921 (Vol. VII), Bihar and Orissa Part- I सँ किछु अंश उद्घृत करैत छी ।
"The most common language in the province is Hindi or Urdu which is spoken by two third of the population. In north and south Behar it is practically universal, in Orissa it is spoken by 3 and in Chota Nagpur Plateau by 30 persons out of every 100. The language spoken is not really Hindi in the eye of the Linguistic survey, but the Bihari a language of the eastern group of the outer subbranch of the Indo-Aryan language. It has three principal dialects :- Maithili, which is spoken in North Bihar, excluding Saran and Champaran, Magahi, which is spoken in south Bihar excluding Shahabad, and Bhojpuri, which is spoken in the line of districts that from western fringe of the province Champaran to Palamu.
According to calculation the number of Maithili speakers is 10,272,711 of Magahi speakers 5,327,55 and Bhojpuri speakers 6,826,900.
(page 210,211)
उपर्युक्त अवतरण क सारांश ई अछि जे बिहार प्रान्तक साधारण भाषा हिन्दी अथवा उर्दू थिक । जनसंख्याक दू-तेहाई मनुष्य हिन्दी-भाषा-भाषी छथि । उत्तरीय तया दक्षिणी बिहार में सब गोटे इयेह भाषा बजैत छथि । उडीसा तथा छोटा नागपुर मे हिन्दी-भाषा बजनिहारक संख्या प्रतिशत क्रमश: 3 तथा 30 अछि । परन्तु प्रान्तस्थित भाषासमूहक यथार्थ निरीक्षण सँ ई स्पष्ट अछि जे एहि भाषा कैँ 'हिन्दी' कहब ठीक नहिँ, प्रत्युत एकरा 'बिहारी' कहब अधिक उपयुक्त । एहि भाषाक उत्पति भारतीय आर्य भाषाक पूर्वीय उपशाखा सँ अछि । एहि भाषा में प्रधान तीन 'बोली’(dialects)अछि । सारन क्या चम्पारन जिलाक अतिरिक्त उत्तरी बिहारक आन सब जिला मे मैथिली बाजल जाइत अछि । दक्षिणी बिहार क भाषा 'मगही' थिक । दक्षिणी बिहार मे केवल 'शाहावाद' टा एहन जिला अछि जते 'मगही' क प्रचार नहि । प्रान्तक पश्चिमीय सीमा पर अवस्थित आन सब जिला में 'भोजपुरी' क प्रसार अछि । चम्पारन –
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- सँ पलामू पर्यन्त भोजपुरीक विस्तार बुझ क चाही।
गणना क अनुसार मिथिला-भाषा-भाषीक संख्या 10272711,'मगही' बजनिहारक 5327553, एवं भोजपुरी-भाषा-भाषीक; 6826990 अछि ।
उपर्युक्त अवतरण सँ स्पष्टतः ज्ञात होएत जे बिहार मे मैथिली-भाषा-भाषी कतेक छथि । की जाहि भाषाक एतेक बजनिहार होथि से भाषा अग्रण्य कहा सकैत अछि ? मैथिली भाषा केँ एम.ए. मे स्थान दै कलकत्ता-युनिवरसिटी जेहन उदारता तथा कृतज्ञताक परिचय देलक अछि से सर्वथा श्लाघनीय तया अनुकरणीय अछि । मैथिली भाषाक पथ सर्वथा कण्टकाकीर्ण अछि । कारण जे शिक्षित समुदाय में बहुतो व्यक्ति एहन छथि जनिका मिथिला भाषाक नाम सुनैत कँपकपी भै जाइत छन्हि ।
किछु दिन भेल पटना सँ प्रकाशित 'देश' नामक समाचार पत्र मे 'बिहार मे मिथिलाभाषा' शीर्षक एक लेखमाला छपल छल । उक्त लेख मे मिथिला तथा मैथिल संस्कृति पर एहन निराधार तथा कुत्सित आक्षेप कैल गेल अछि जाहि सँ लेखक महोदयक विषयानभिज्ञता प्रकट होइत अछि। हुनक कथन छैन्हि जे मिथिलाभाषा क तँ चर्चा कोन मिथिला प्रान्तहु क अस्तित्व नहि अछि तथा जाहि संस्कृति वा आचार-विचार के हमरा लोकनि मैथिल विशेषण दैत छी से यथार्थत: प्राचीन मैथिल नहि थिक । हुनक दिचारदृष्टि मे मैथिल जाति यदि अति प्राचीन काल मै कतहु छलो तथापि ओकर शेष आब कतहु नहि अछि तथा मगधक आधिपत्य समय मे सबहु एक भय मागध भय गेलहुँ, अत: हमरा लोकनि सभ बिहारी थिकहुँ, हिन्दी हमरा लोकनिक मातृभाषा थिक तथा बिहार हमर देश थिक ।" संक्षेपतया है ओहि लेखमाला क प्रतिपाद्य विषय छैन्ह । हमरा पूर्ण विश्वास अछि जे केओ मैथिल एहन निर्मूल ओ भ्रमात्मक कथनक युक्तियुक्त खण्डन कय सकैत अछि । किन्तु खेदक विषय थिक जे एहि लेखहुक लिखनिहार अपना केँ मैथिल कहैत छथि । अतएव यदि अन्य मैथिल पर नहि तँ मैथिलेतर व्यक्ति पर हुनक लेखक प्रभाव पड़ि सकैतअछि। हम सम्प्रति हुनक लेखक खण्डन करय नहि चाहैत छी किन्तु पंजाब सँ बंगाल तथा नेपाल सेँ कुमारी अन्तरीप धरि के हिन्दू अपन प्राचीन सभ्यता जो हिन्दूघर्म के जनैत मैथिल ओ मिथिला सँ परिचित नहि छथि? राजर्षि जनकक राज्य मिथिला छलैन्ह । याज्ञवल्क्य मिथिला मे छलाह जनिके धर्म-शास्त्र प्राय: बंगाल छाड़ि समस्त भारतवर्ष मे प्रमाण मानल जाइत अछि। बौद्धधर्म के घोर प्रतिद्वंद्वी मंडन मिश्र, उदयनाचार्य, प्रभृति, षट्दर्शनपण्डित वाचस्पतिमिश्र, शङ्करमिश्र आदि अपन प्रकाण्ड विद्वता तथा अविचलित धर्मपरता सँ केवल मिथिला केँ नहिं समस्त हिन्दू जाति केँ उज्ज्वल –
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- बनओने छथि । हिन्दू धर्मशास्त्र ओ हिन्दू दर्शनशास्त्रक एक मुख्य केन्द्र मिथिला आदि सँ अछि । न्यायदर्शन क प्रवर्त्तक गौतम मिथिला क छलाह । एखनहु मिथिला क भिन्न धर्मशास्त्र बृटिश गवर्नमेन्ट द्वारा स्वीकृत अछि तथापि यदि केओ कहथि जे मिथिला क अस्तित्व नहिँ अछि तै हुनका मूर्ख छाड़ि आओर की कहि सकैत   छियैन्ह ।
यदि मैथिल केँ एखनहुँ कोनहु वस्तुक अभिमान छैन्ह तँ अपन प्राचीन सभ्यता ओ धर्मपरताक यदि कोनो समाजक आचार जो विचार याज्ञवल्क्यादिस्मृति क अनुसरण एखनहु करैत अछि तँ जो समाज मैथिल थिक । हम प्रौढ़ता सँ कहैत छी जे हमरा लोकनि सम्प्रति अपन धर्मपरकताक हेतु अन्य समाज में असभ्य कहबैत छी तथापि समस्त उत्तर भारतवर्ष क कोन जाति हमरा संग एहि अंश मे स्पर्धा कय सकैत अछि? अति प्राचीनकाल सँ अनेको कष्ट सह्य करैत हमरा लोकनि अपन शुद्ध आर्यरक्त ओ श्रौतस्मार्त्त आचार-विचार मात्रहिक रक्षा करैत अयलहुँ अछि । हमरा समाज मे बौद्धधर्मक प्रभाव लक्षित होइत अछि । अहिंसाक प्राधान्य सदा सँ हमरा ओहि ठाम अछि । सभ समाज मे हमरा लोकनि सदा सँ एही हेतुक भिन्न रहि अयलहुं अछि तथा यथार्थ जे केओ व्यक्ति सनातनघर्माभिज्ञ होयताह से हमरा लोकनि क सत्कार करितहि छथि । भारत क अन्यान्य प्रान्त मे जतय प्राचीन संस्कृति क लेश छैक हमरा लोकनि सत्कृत होइतहिं छी । तखन दक्षिण भागलपुरीय मैथिल हमरा किछु कहथु ओहि सँ हुनक अपन क्षुद्रता, मूर्खता ओ विषयानभिज्ञता मात्र द्योतित होइत छैन्ह ।
उक्त लेखमाला क प्रकाशित होएवाक कारण ई भेल जे गत अगस्त मास मे पटना मे मैथिल छात्रक संख्या विशेष बढ़ि गेल तथा एक समिति के स्थापना करब सबहि कै आवश्यक बुझना गेल । समितिक स्थापना भेला सन्ता येनकेनोपायेन मैथिली केँ पटना-युनिवर्सिटी मे कलकत्ता-युनिवर्सिटी जकाँ स्थान भेटय एकर यत्न करब ओकर एक मुख्य अंश बुझना गेल तथा जखन एकर यत्न होमय लागल तखन उल्लिखित लेखमालाक लेखक प्रभृतिक दिशि सँ एका घोर विरोध होमय लागल ओ एही प्रसंग मे जनताक चित्त कलुषित करवा क हेतु 'देश' मे उक्त लेख छपल । मैथिलीक विरोध मे हुनका लोकनि के मुस्काया तीनिटा युक्ति छैन्ह । “प्रथमतः मैथिली हिन्दीक अंग थिक ओ एकर उन्नति भेला सँ हिन्दीक उन्नति मे बाधा  होएत । (2) मैथिलीक साहित्य दरिद्र अछि तथा भागलपुर, चम्पारन आदिक मैथिल केँ मैथिली सिखवा में ओतबे कष्ट होएतैन्ह जतबा हिन्दी सिखवा मे । (3) मैथिलीक स्वीकृति 'मेला सँ सम्भव जे भविष्य मे मिथिला बिहार सँ भाषाभिन्नत्ताक कारणे प्रान्त भिन्नताहुक चेष्टा करय तथा लिपिसाम्य सँ बंगाल में अन्तर्भुक्त कय लेल   जाय ।'' पटना-समिति, अपना मे विरोध नहि हो अतएव एक प्रश्नावली बनाय मुख्य मुख्य मैथिल विद्वान म. म. डाक्टर श्री गंगानाथ झा प्रभृति सात गोटाक ओतय पठओलक तथा सबहिक उत्तर मैथिलीक घोर पक्ष मे आएल ।
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राष्ट्रभाषाक नाम पर मैथिल लोकनि यदि अपन मातृभाषाक तिरस्कार करथि तँ हुनका लोकनि क अस्तित्वहि क लोप भय जयतैन्ह । राष्ट्रभाषा हिन्दी तँ समस्त भारतवर्षक होएत परंच कोनो प्रान्त अपन मातृभाषाक त्याग नहि कय रहल अछि । हमर साहित्यक सबसँ उज्जवल रत्न विद्यापति छथि तया उमापति, हर्षनाथ प्रभृति कतेको आओर छथि । अतएव साहित्यहुक दृष्टि सँ नितान्त दरिद्र मैथिली नहि कहल जाय सकैत अछि । शुद्ध मैथिली सिखवा मे प्राय: सभक उत्तर पहिने अछि जे दक्षिण भागलपुरीय व्यक्ति केँ छाड़ि आन सभ कें सुगमते होएतैक । प्रान्त विच्छेदक हेतुक जे विरोध अछि तकर सभ तिरस्कारपूर्ण उत्तर देलैन्ह अछि ओ हमरा लोकनि के अपना में ततबा भेद बुद्धि अछिए जे एक भाषाक स्वीकृति भेलहु सन्ता, ओहि मे विशेष वृद्धि क सम्भव नहिं । अतएव आब समय प्राप्त भेल अछि जे हमरा लोकनि कटिबद्ध भय तत्पर होइ जाहि सँ मैथिली आबहु स्वीकृत हो । हमरा तँ विश्वास अछि जे यदि पचीस वर्ष पूर्व मैथिलीक स्वीकृतिक हेतु यत्न कयल जाइत तँ आइ बिहार क भाषा हिन्दी नहि किन्तु मैथिली कहबैत । 1925 ई. मे पटना-युनिवर्सिटी मे मैथिली स्वीकृतक हेतु एक प्रस्तावो कयल गेल छल परंच मैथिलक पक्ष में बंगाली छाड़ि आओर केओ नहि भेल । मैथिलीक उन्नति भेनहि सन्ताँ मैथिल जातिहुक उन्नतिक आशा अछि ओ बिहारक सभ समाज के भय छैक जे जखन मैथिल अग्रसर भेल, ओ सभ सब केँ हरा कय अगुआ जाएत । अतएव अपन प्रान्त में हमरा लोकनि केँ चारूदिशि शत्रुए देखना जाइत   अछि । एतेक दिन तँ कोनो अपन पत्र नहि छल जाहि द्वारा एहि विषय क कोनो प्रचार कयल जाइत । जाब आशा अछि जे मिथिला अपन नामक मर्यादाक रक्षा करैत अपन भाषाक पूर्ण प्रचार करत । सम्प्रति निम्नलिखित प्रस्ताव हम समस्त समाजक समक्ष उपस्थित करैत छी ओ पूर्ण विश्वास अछि जे आबहु हमरा लोकनि यत्नपर भय जाएब जाहि सँ मैथिलीक उन्नति हो तैखन हमरहु लोकनि क उन्नति होएत ।
प्रस्ताव-
(1.)             दरभंगा मे एक मैथिली-साहित्य-परिषदक स्थापना हो जाहि सँ मैथिल विद्वान लोकनि सँ प्रार्थना कयल जाइन्ह जे ओ लोकनि मैथिली मे ग्रन्थ लीखि परिषद कैँ देथि ।
(2.)             मैथिल महासभा मे प्रस्ताव हो जे गवर्नमेन्ट सँ अनुरोध कयल जाइत अछि जे मैथिली के पटना युनिवर्सिटी मे स्थान हो । कारण मैथिल महासभा हमरा लोकनिक एकमात्र बृहत संघ अछि ।
(3.)             प्रत्येक स्थान मे एहि हेतु क सभा हो तथा सभठाम सँ गवर्नमेन्टक ओतय प्रार्थना कयल जाय तथा दरभंगा डि. बोर्ड में सबहि चेष्टा करथि जे प्राथमिक शिक्षा मैथिली मे अन्तत: एकोठाम प्रारम्द्रभ हो जाहि सँ ओकर –
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-           फलाफल बुझना जाइक ।
(4.)             यदि आवश्यक बुझना जाय तँ मैथिल महासभाक दिशि सँ Minister of Education तथा Vice-Chancellor Patna University क ओतय एक Deputation मैथिलीक स्वीकृति हेतु आबय ।
(5.)             प्रत्येक शहर मे मैथिल समितिक स्थापना हो ओ सभ क्यो एहि यत्न मे तत्पर भय जाइ अन्यथा आब दिनानुदिन सफलता कठिन भेल जाइत अधि जो सबहि हास्यास्पद भेल जाइत छी ।

(मिथिला, वर्ष- 1, अंक-.1, 1929)


साभार
आचार्य रमानाथ झा रचनावली -3
[प्रथम संस्करण-2010]
संकलन-सम्पादन: मोहन भारद्वाज
वाणी प्रकाशन, दिल्ली-11002

Sunday, May 29, 2016

मिथिला / मार्कण्डेय काटजू

भारतक सर्वोच्च न्यायालयक सेवानिवृत न्यायाधीश आ प्रेस काउन्सिल ऑफ इंडियाक पूर्व अध्यक्ष मार्कण्डेय काटजू बेबाकीसँ अपन विचार राखबा लेल जानल जाइत छथि । हुनक विचारसँ कएक बेर असहमत होइतो हुनक स्पष्ट नजरिया आ तात्कालिक मुद्दा सभपर प्रतिक्रियाशील रहबा लेल प्रशंसा कएल जाइत छनि । ई आलेख मूलतः हुनक एकटा ब्लॉग-पोस्टक थिकै, जे हुनक ब्लॉग - सत्यम् ब्रुयात' पर 27 दिसम्बर 2014केँ पोस्ट कएल गेल  छलैक । एहि ब्लॉग-पोस्टकेँ बहुत महत्त्वक सामग्री नहि कहल जा सकैत अछि, मुदा ई पोस्ट मिथिलाकेँ एकटा एहन अमैथिल व्यक्तिक नजरियासँ देखबाक अवसर प्रदान करैत अछि, जिनक प्रतिक्रियाकेँ पर्याप्त महत्त्व भेटैत रहलैक अछि । ध्यान देबा योग्य बात ई अछि जे ओ मिथिलाक भूमिकेँ महान दार्शनिक आ न्यायविद् लोकनिक जन्मभूमिक रूपमे चिन्हैत छथि आ तेँ ई भूमिक लेल हुनका मनमे अगाध श्रद्धा छनि । एहि ब्लॉग-पोस्टक अनुवाद लेखकक अनुमति प्राप्त केलाक उपरान्त कयल गेल अछि । अनुवाद करैत काल नीक अभिव्यक्तिक उद्देश्यसँ कएक ठाम किछु छूट अवश्य लेल गेल अछि ।



मिथिला
श्री मार्कण्डेय काटजू

अपन पछिला पोस्टमे हम महान न्यायिक दार्शनिक उदयनाचार्यक चर्चा केने छलहुँ । उदयनाचार्य प्रसिद्ध टीका न्याय कुसमांजलिक लेखक छथि । ओ मिथिलाक छलाह ।
          मिथिला, भारतक उत्तर बिहारमे (अंशतः नेपालोमे) अवस्थित एकटा क्षेत्र अछि, जतय हम कहियो नहि गेल छी, मुदा मरबासँ पहिने कमसँ कम एक बेर ओतए जेबाक सेहन्ता अछि । एकर कारण ई अछि जे एहिठाम बहुत पैघ संख्यामे असाधारण दार्शनिक, विद्वान आ कवि लोकनिक जन्म भेल छनि । गौतम, बुद्ध आ महावीर एतय रहलाह । उदयनाचार्य, जिनकर हम उल्लेख केने छी, हुनका अतिरिक्त कएकटा श्रेष्ठ विद्वान जाहिमे कुमारिल भट्ट, मंडन मिश्र, वाचस्पति मिश्र, डॉ. गंगा नाथ झा आदि छथि, केँ यैह भूमि जनम देनए अछि । महान कवि विद्यापति (1352-1448) सेहो मिथिलेक छलाह ।
एहन कहल जाइत अछि जे जखन आदि शंकराचार्य अपन गृह-राज्य केरलसँ उत्तर भारतक प्रसिद्ध मीमांसाविद् मंडन मिश्र (प्रख्यात मीमांसाविद् कुमारिल भट्टक शिष्य) सँ शास्त्रार्थक लेल आयल छलाह, आ ओ मंडन मिश्रक घरक रस्ता पूछलनि तँ हुनका कहल गेलनि जे मंडन मिश्रक घर एकटा गाछक तरमे छनि, जकर ठारिपर बैसल सुग्गा सभ बजैत रहै छै जे सत्य की थिक आ असत्य की थिक? मोक्ष कोना प्राप्त कएल जाइत छैक? इत्यादि । दोसर शब्दमे कही तँ ई जे मिथिला भरिमे कएकटा श्रेष्ठ विद्वान लोकनि छलाह, जिनका लोकनिक बीच वाद-प्रतिवाद चलैत रहैत छलनि ।
इलाहाबाद विश्वविद्यालयमे, जतय हम 1963 सँ 1967 धरि पढ़ने छलहुँ, ओतय मिथिलासँ आएल कएकटा श्रेष्ठ विद्वान कुलपति रहि चुकल छथि । डॉ0 गंगानाथ झा, मीमांसा शास्त्रक (जकर हमहुँ दीर्घकाल धरि अध्येता रहि चुकल छी), पैघ विद्वान छलाह । कुमारिल भट्टक तन्त्र वर्तिका’, ‘श्लोक वर्तिकाशाबर भाष्यआदि केर संस्कृतसँ अंग्रेजी अनुवादक माध्यमे ओ एकटा पैघ योगदान देलनि, जाहिसँ हम व्यक्तिगत रूपेँ लाभान्वित रहलहुँ । इलाहाबाद उच्च न्यायालयक न्यायाधीशक बतौर हम नियमित रूपसँ एहि किताब सबहक अध्ययन करबा लेल इलाहाबादक अल्फ्रेड पार्क स्थित डॉ. गंगानाथ झा पुस्तकालय जाएल करैत रही, जाहिसँ हमरा वैधानिक पाठ सबहक व्याख्या करबामे बड्ड मदति भेटल ।
हम पूर्व मीमांसाक अध्येता रहल छी, कियै कि ई शास्त्र व्याख्याक सिद्धान्त उपलब्ध करबैत अछि, जे वैधानिक नियम सबहक व्याख्या करबामे उपयोगी होइत अछि । एहि शास्त्रकेँ विकसित करएबला किछु श्रेष्ठ विद्वान लोकनि मिथिलेक छलाह । जखन हम इलाहाबाद उच्च न्यायालयक न्यायाधीश छलहुँ, हम एकटा पोथी व्याख्याक मीमांसा पद्धति (The Mimansa Rules of Interpretation)क पांडुलिपि तैयार केने छलहुँ । ई अंग्रेजीमे एहि विषयपर एकमात्र पोथी थिक (बाँकी सब पोथी संस्कृतमे छैक) । एकरा लेल एकटा प्रकाशकक जरूरति छलैक । इलाहाबादमे एकटा समारोहमे हमरा मिथिला विश्वविद्यालयक एकटा प्रोफेसर भेट भेलाह, हुनका पोथीक विषयमे बतौलियनि । हम हुनका कहलियनि - सर, अपने मिथिलाक छी, जे राजा जनक आ भारतक कतेको महानतम मीमांसाविद लोकनिक भूमि रहल अछि; कृपया एहि पोथीकेँ प्रकाशित कराबी ।ओ सकारात्मक प्रतिक्रिया देलनि, मुदा बादमे किछु केलथि नहि ।
मिथिलाक भाषा मैथिली, हमर सुनल मधुरतम भाषामेसँ एक अछि, हालाँकि हम एकरा बूझि नहि पबैत छियैक ।
जखन हम मद्रास उच्च न्यायालयमे मुख्य न्यायाधीश छलहुँ, मैथिली नामक एकटा तमिल वकील हमरा समक्ष प्रस्तुत भेली । हम हुनकासँ पूछलियनि जे कि ओ अपन नामक अर्थ जानैत छथि? ओ कहलियनि - नहि । तखन हम हुनका बतौलियनि जे एकर अर्थ होइछ - ओ जे मिथिलासँ सम्बद्ध अछि । मिथिला, उत्तर बिहारमे स्थित श्रेष्ठ दार्शनिक राजा जनकक आ भारतक किछु महानतम विद्वान लोकनिक भूमि थिक । राजा जनक सीताजीक पिता छलाह । सीताजीक विवाह भगवान राम संगे भेल छलनि ।
किछु दिन पहिने हमरा मिथिला अएबाक निमंत्रण भेटल छल । किछु पहिनहिसँ निर्धारित काजक कारणें हम एकर लाभ नहि उठा सकलहुँ, मुदा जँ ई निमन्त्रण आब भेटय तँ हम एकर लाभ उठेबा लेल तत्पर रहब ।

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मूल आलेखक लिंक : Mithila (Saturday, 27 December 2014)

[अंग्रेजीसँ अनुवाद : कुमार सौरभ]


स्पष्टीकरण :
गुगल सर्चसँ ज्ञात भेल जे मार्कण्डेय काटजूक एहि लेखक मैथिली अनुवाद प्रवीण नारायण चौधरी बहुत पहिने कए चुकल छथि । ई जानकारी रहितय तँ अनुवाद कार्यक श्रमसँ बचितहुँ । हमरा विचारें प्रवीण जीक अनुवाद हमर एहि अनुवादसँ बेसी नीक आ स्तरीय अछि । कृपया हुनक कयल अनुवाद अवश्य पढ़ी । हुनक कयल अनुवादक लिंक एतय देल जा रहल अछि : प्रवीण नारायण चौधरीक कयल मैथिली अनुवाद

         [कुमार सौरभ / 30.05.2016, 11:45 AM]

Tuesday, May 24, 2016

परिचायिका / गोविन्ददास : भीमनाथ झा

इंटरनेट पर मैथिली साहित्कार सबहक जीवन आ कृतित्व पर विवरणात्मक लेख प्रायः अनुपलब्ध अछि। पाठकशोधार्थी आ विद्यार्थी सबहक लेल ई स्थिति बहुत असुविधाजनक अछि । भीमनाथ झाक कृति 'परिचायिका' एहि दिसा मे नीक मदति कसकैत अछि। 'मैथिली मंडनसमय समय पर हुनक एहि कृति सँ साहित्यकार लोकनिक परिचय प्रस्तुत करबाक प्रयास करत। एकरा परिचायिका’ श्रृंखलाक अन्तर्गत प्रस्तुत कएल जायत।
ध्यान राखी जे 'परिचायिकामूलतः सूचनात्मक लेख सबहक संकलन थिक। इहो ध्यान राखी जे एकर तथ्यक संगहि दृष्टिकोण केँ अंतिम नहि मानल जा सकैछ। अपन मत सुनिश्चित करबा लेल आनो स्रोत सबहक मदति लेबाक चाही। 'मैथिली मंडन' पर कयल जा रहल प्रस्तुति त्रुटिहीन होइ, एहि बातक ध्यान राखल जाइत छैक, मुदा प्रामाणिक आ त्रुटिहीन संदर्भक रूपमे मूल किताबेक उपयोग कएल जेबाक चाही। 
एहि किताबसँ कोनो सामग्री केँ प्रस्तुत करैत 'मैथिली मंडन'क एहि सँ सहमत भेनय अनिवार्य नहि  अछि। एकर प्रस्तुति क पाछाँ विशुद्ध रूपें अकादमिक खगता केँ पूरा करबाक भावना अछि। एहि मे अपन व्यावसायिक हित साधब वा किनको व्यावसायिक अहित करबाक कोनो दुर्भावना निहित नहि अछि । एहि प्रस्तुतिक लेल लेखकसँ अनुमति लेल गेल छैक, तथापि कोनो सम्बद्ध पक्षकेँ जँ कोनो तरह तरहक आपत्ति होइन्ह, तँ ओकर निपटारा 'मैथिली मंडन'क प्राथमिकता होयत। 
एतय  'परिचायिका'  सँ गोविन्ददास आ हुनक कृतित्व पर केन्द्रित आलेख अक्षरशः प्रस्तुत कएल जा रहल अछि।


गोविन्ददास
[GOVINDADAS]
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गोविन्ददास, विद्यापतिक बाद, आदिकालक सभसँ महत्वपूर्ण कवि छथि ।  विद्यापतिसँ मैथिलीमे श्रृंगार आ भक्तिक धार जे प्रवाहित भेल, ताहिमे यद्यपि अनेको कवि फूह-फाहसँ अपन योगदान देलनि, किन्तु गोविन्ददास रसक अनवरत मूसलाधार वृष्टि क’ ओहि धारमे बाढ़ि आनि देलनि । हिनको ख्याति, विद्यापतिए जकाँ, मिथिलाक सीमाकेँ टपि सम्पूर्ण बंगालमे पसरि गेल ।
          हिनको समय बहुत दिन धरि अनिर्णिते रहल । एखनहुँ एहिपर ऐक्यमत्य नहि भ’ सकल अछि । बंगाली विद्वान बहुत दिन धरि हिनका बंगालक कवि मानैत रहलाह, किन्तु आब सिद्ध भ गेल अछि जे ई मैथिल छलाह । अपन विषयमे ईहो किछु नहि लिखने छथि । पंजीमे एकसँ अधिक गोविन्ददास नाम भेटैत अछि, तेँ ई निश्चय करब कठिन जे एहिमेसँ महाकवि गोविन्ददास के थिकाह । गोविन्ददासक भनितामे नरसिंहसँ ल’ कंसनारायण धरिक नाम भेटैत अछि । ताहिसँ एतबातँ सिद्ध होइत अछि जे इहो राज्याश्रित कवि छलाह । किन्तु हिनक बहुतो गीत एहन अछि जाहिमे कोनो राजाक उल्लेख नहि अछि । एहिसँ ईहो स्पष्ट होइछ जे ई स्वतन्त्रो रूपसँ, बिना राज्याश्रयक, काव्यरचना कयने छलाह ।
हिनक परिचय आ समयक प्रसंग विद्वानलोकनिक मत निम्नलिखित अछि-
कवीश्वर चन्दा झा पंजीक आधार पर हिनक परिचय देने छथि “शुचिकर झा-एपुत्रः शिवदास झा, एपुत्रा गंगादास-गोविन्ददास-हरिदास-रामदासाः । गंगादासस्य पुत्रः चानशर्मा चन्द्रशेखरोपनामा एपुत्रः शोभानाथ शर्मा एपुत्रौ टेकनाथ शर्मा धुरपीशर्मा च । टेकनाथशर्मनो दौहित्रः महाराजलक्ष्मीश्वर सिंह: ।”
प्रो. रमानाथ झा हिनका कुजौलीवार मूलक कात्यायन गोत्रीय श्रोत्रिय ब्राह्मण मानने छथि तथा एहि वंशक उतेढ़ देखबैत एहि वंशक अनेक व्यक्तिक सम्बंध मिथिलाक राजपरिवारसँ सिद्ध कयने छथि ।
डॉ. जयकान्त मिश्र कहैत छथि “He was a contemporary of Maharaja Sundara Thakur (1663/4-1670/1) and belonged to the mother’s family of the late Maharaja Rameshwara Singha Bahadur (1888-1929)” ई चारू भाइ कवि छलाह तथा हिनक अनुज रामदास अपन आनन्दविजय नाटिकामे अपन अग्रज गोविन्ददासकेँ विद्यागुरू स्वीकार कयने छथि । आनन्द विजय महाराज सुन्दर ठाकुरकेँ समर्पित अछि ।
डॉ. शैलेन्द्र मोहन झाक अनुसार गोविन्ददास विद्यापतिक लगले परवर्ती-कालमे भेलाह । एकर पाछाँ हुनक तर्क छनि जे विद्यापति भैरवसिंहक आज्ञासँ दुर्गाभक्ति तरंगिणी लिखलनि । गोविन्ददास सेहो एक गीतक भनितामे भैरवसिंहक उल्लेख कयने छथि । गोविन्ददास विद्यापतिकेँ अपन गुरू रूपमे स्वीकार कयने छथि । अतः दुनू कवि समसामयिके थिकाह ।
[पृष्ठ-14]
डॉ. रामदेव झाक अनुसार कंसनारायणक समकालिक, ‘नलचरित’-रचियता, दिघवय-सन्नहपुर मूलक तथा पंजीमे कवि आ महामहोपाध्याय उपाधिधारी विशिष्ट मन्ति (मन्त्री) गोविन्दे ई गोविन्ददास थिकाह ।
श्री नरेन्द्रनाथ दासक अनुसार गोविन्ददास कायस्थ कुलोद्भव श्रीधरदासक वंशपरम्परामे अबैत छथि ।
प्रो. सुरेन्द्र झा सुमन उचिते  कहलनि अछि जे “गोविन्ददास कोनहु कालखण्डक होथु, कोनहु अभिजन ओ कुल परिवारक होथु, ओ छथि मैथिलीक महाकवि, जनिक स्थान विद्यापतिक परम्पराक कोनहु कविसँ न्यून नहि । ओ अपन शैलीक अनन्य कवि छथि । श्रुतिमाधुर्य, वर्णन विन्यास ओ लीलारसक उपन्यासमे हुनक स्थान मैथिलीअहिमे नहि कोनो उत्तरभारतीय भाषामे अनुपम मानल जायत । हुनक पदमे शब्दशास्त्रीय पाण्डित्य, तार्किकता, अलंकारिता ओ भक्ति-अनुरक्ति सभ तत्व परिलक्षित अछि । रसना-रोचन श्रवण विलासउच्चारणमे मुख-सुखद ओ श्रवणमे श्रुति सुखदएहि समन्वित पदसौकुमार्यकेँ अनिवार्य रूपेँ काव्यतत्वमे प्रवएश कयनिहार, ओकरा सफलतासँ प्रदर्शित कयनिहार कोनो आन कवि हठात् दृष्टिगोचर नहि होइत छथि ।’’
गोविन्ददास अपन एक पदमे विद्यापतिक स्मरण करैत लिखने छथि-
कविपति विद्यापति मतिमाने
जाक गीत जग-चीत चोराओल
गोविन्द गौरि सरस रस गाने
तथा-
विद्यापति-पद-कमल सरोरुह निस्पन्दित मकरन्दे
तसु मझु मानस मातल मधुकर पिबइते करु अनुबंधे

एही पाँती सभसं ई प्रमाणित होइत अछि जे ई विद्यापतिसँ विशेष प्रभावित छलाह । ईहो श्रृंगार आ भक्ति दुनू प्रकारक पद, विद्यापतिए जकाँ, रचने छथि । किन्तु दुनूमे मौलिक अन्तर अछि ।  जतय विद्यापतिकेँ मुख्यतः श्रृंगारिक कवि मानल जाइत छनि तत’ गोबिन्ददासकेँ मुख्यतः भक्तकवि । हिनक श्रृंगारिक पद सभमे सेहो कृष्णभक्तिक  छाप अछि । एकर कारण प्रायः ई थिक जे हिनके समयमे  बंगालमे चैतन्यदेव भेल छलाह । चैतन्यदेव जाहि रूपमे श्रीकृष्णक प्रति सर्वस्व समर्पण-भाव प्रकट कयलनि, से छल राधाभाव । अर्थात् अपनाकेँ राधा मानि क’ ओ श्रीकृष्णकेँ अपन प्रेमी मानने छलाह । वस्तुतः एहेन स्थितिमे श्रृंगारक उदय होयब स्वाभाविके । किन्तु एहि श्रृंगारमे समर्पण-भाव छैक, एकर मूलमे भक्तिक भाव छैक । एहि सम्प्रदायसँ प्रभावित गोविन्ददासक पद सभक आवरण तँ अछि श्रृंगारक, किन्तु ओकर आत्मा अछि भक्तिक । यैह कारण थिक जे हिनक पद सभक जे संकलन स्वनामधन्य डॉ. अमरनाथ झा कयलनि, तकर नाम ओ रखलनि ‘श्रृंगार भजनावली’ । एकर तात्पर्य जे गोविन्ददासक पद सभ तँ भजन थिक, अर्थात भक्तिभावमूलक थिक, किन्तु से भक्ति प्रकट भेल अछि श्रृंगारक माध्यमसँ । उक्त ‘श्रृंगार  भजनावली’ जकर संकलयिता आ सम्पादक डॉ. अमरनाथ झा छलाह, सर्वप्रथम प्रो. रमानाथझाक ‘साहित्य-पत्र’मे प्रकाशित भेल । बादमे पुस्तकाकार सेहो बहार भेल ।
 [पृष्ठ-15]

          श्रृंगार-भजनावलीक अतिरिक्त गोविन्ददासक गीतक दू गोट आओर संकलन मुख्य अछि । प्रो. सुरेन्द्र झा ‘सुमन’ द्वारा संपादित ‘गोविन्द गीतांजलि’मे गोविन्ददासक समस्त उपलब्ध पद संकलित कयल गेल अछि, जकर कुल संख्या 340 अछि । सम्पादक हिनक पदकेँ ‘श्री राधाकृष्ण-रसलीला-पदावली’कहलनि अछि । सभ पदक ऊपर रागक नाम तथा शीर्षक देल गेल अछि, जे पदक भावकेँ ध्वनित करैत अछि ।  दोसर संकलन जकर नाम ‘गोविन्ददास-भजनावली’ थिक, मैथिली अकादमी पटना द्वारा प्रकाशित अछि, जकर सम्पादक पं. गोविन्द झा थिकाह । एहिमे कविक 130 पदक अर्थ देल गेल अछि ।
          विद्यापतिसँ हिनकामे एक अंतर ई अछि जे जत’ विद्यापतिक पद प्रसादगुण युक्त अछि, अर्थात् सहज रीतिएँ अर्थ लागि जाइत अछि, तत’ हिनक पद शब्दालंकारसँ ततेक बोझिल भ’ गेल अछि जे अर्थानुसन्धानमे कठिनता उत्तपन्न क’ दैछ । प्रो. रमानाथ झाक शब्दमे “शब्दक एहन विन्यासी कवि मिथिला भाषामे दोसर नहि भेल तथा पदकेँ ललित श्रुति मधुर अर्थानुग्राही एवं समता-संयुक्त बनएबामे यदि शब्दकेँ तोड़हु पड़लन्हि, ओकर स्वरूप विकृतो करए पड़लन्हि तथा अपन हृदयक भाव झाँपलो भए गेलन्हि, तथापि गोविन्ददासक अर्थक प्रसादक हेतु शब्दविन्यास नहि दूरि कएलन्हि ।”
          हिनक पदक दुरूहताक कारणक तहमे जाइत डॉ. दुर्गानाथ झा ‘श्रीश’ कहैत छथि- “हिनक रचनामे जे दुरूहता अछि, तकर प्रधान कारम थिक नैयायिक कविक कठोर परन्तु सूक्ष्म कल्पनाशक्ति । आशयक गाम्भीर्य, ध्वनिक सूक्ष्मता, व्यंगक दूरत्व सेहो प्रायः अधिक ठाम हिनक गीतमे अर्थक दुरूहताक कारण बनि गेल अछि, से सब नैयायिकक सूक्ष्म विवेचनक अभ्यासक परिणाम कहल जा सकैत अछि ।”
          गोविन्ददासक पद जेहने काव्यकलाक दृष्टिएँ उत्कृष्ट, तेहने भाव पक्षक दृष्टिएँ स्वच्छ प्रांजल । हिनक श्रृंगारिक पद, जकरा ब्रजबुलिबला लोकनि रहस्यात्मक भाव बोधयुक्त विशिष्ट भक्ति-पक्षक पद मानैत छथि, राधाकृष्णक विराट् लीला-रूप समक्षमे राखि दैत अछि । प्रेमक कतेको प्रकार मानल गेलैक अछि, यथा-मान, विरह, अभिसार, संवाद आदि, ताहि सभ पक्ष पर प्रचुर सामग्री, सेहो उत्कृष्ट कोटिक, कवि द्वारा लिखल गेल अछि ।
          राधाक अंग-प्रत्यंगकेँ विभिन्न फूलसँ समता देखब’वला कविक कुसुम-वदनाक किछु पाँती द्रष्टव्य थिक-
कानन कुसुम तोड़ल किए गोरी
कुसुमहि सब तन निरमित तोरी
आनन हेम सरोरूह भास
सौरभ श्याम भ्रमर मिलु पास
नयन युगल निल उतपल जोर
सहज सोहाओन श्रवणक ओर
         
हिनक ‘नवधा-भक्ति’ (भक्ति भाव प्रदर्शित करबाक नओ प्रकारक विधि)क –

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- प्रसंग एक प्रसिद्ध पद निम्नलिखित अछि-
भजहु रे मन नन्द-नन्दन अभय चरणारबिन्द ।
दुलभ मानुष जनम सत्संग तरह ए भवसिंधु ।।
शीत-आतप-बात-बरषा ए दिन-यामिनी जागि ।
विफल सेवन कृपन दुर्जन चपल सुख सभ लागि ।।
ई धन यौवन पुत्र परिजन एतेक अछि परतीत ।
कमलदल जल जीवन ढलमल भजहु हरिपद नीति ।।
श्रवण कीर्त्तन स्मरण वंदन पादसेवन दास ।
पुजन ध्यान आत्मनिवेदन गोविंददास अभिलाष ।।

विद्यापति आ गोविन्ददासक अन्तर स्पष्ट करबा लेल डॉ. जयकान्त मिश्र दू गोट संस्कृतमहाकविक संग एहि दुनू गोटेक तुलना करैत कहैत छथि- “Vidyapati is like Kalidas-having eminently prasadgun (the quality of pleasing)-and Govinddasa is like Magha-hard to construes.”
हिनक कविताक विशेषता सभकेँ समटैत डॉ. सुकुमार सेन कहने छथि-“He drew largely upon classical lyric poetry for treatment in vernacular. All the simple and complex figures of speech and other devices known in Sanskrit  Rhetoric were utilized by our poet but the greatest achievement…is metrical perfection added tomusical assonance and rhythmic movement.”
गोविन्ददास स्वयं अपन कविताक प्रसंग कहने छथि-
रसना रोचन श्रवण-विलास
रचइ रूचिर पद गोविन्ददास
वास्तवमे गोविन्ददासक पद रूचिर होइत अछि, कारण ओ सुनबामे सुखद ओ स्वादमे मधुर होइछ । से होइतो, हिनक पदक प्रचार मिथिलामे ओतेक नहि भेल, जतेक विद्यापतिक । तकर कारण दू टा । पहिल तँ ई जे विद्यापतिक पद प्रसाद गुणयुक्त छल, सोझ छल, किन्तु हिनक पद क्लिष्ट । तेँ, सर्वसाधारणक जीह पर ओ नहि चढ़ि सकल । दोसर, गोविन्ददास चैतन्यदेवक मधुर रसक रसी छलाह, जे मिथिलाक हेतु ओतेक आकर्षणक केन्द्र-बिन्दु कहियो नहि रहल । तथापि हिनक साहित्यक महत्वतँ अक्षुण्ण अछिए । प्रो. सुरेन्द्र झा ‘सुमन’क शब्दमे “मैथिलीक साहित्याकाशमे विद्यापति ओ गोविन्द दास सूर्य-चन्द्रमा जकाँ प्रतिभाभास्वर छथि । एकर परिधिजँ सुविस्तृत अछि, प्रभाव-प्रताप जँ प्रखरतर अछि, तँ दोसरक स्वर-ध्वनि सीमित रहितहुँ अशेष अह्लादक अछि, भाव-प्रवाह विशेष प्रकारक स्वादु शीतल अछि । विद्यापतिकेँ गुरू-गौरव प्रदान कयनिहार गोविन्ददासक शिष्यताक महत्ता कम कमनीय नहि । कोनहु अंशमे गुरूक पद-पद्धतिकेँ कोमलतम रूप प्रदान करबामे, प्रकृतिक अनुकरणकेँ कलाक अभिधान दिएबामे, रसश्रृंगारकेँ भाव-भक्तिमे परिणत करबामे, गोविन्द दासक शिष्यत्व विशेषत्व प्राप्त कय लैछ । श्रुतेरिवार्थ स्मृति रन्धगच्छत” एहि कालिदासीय उक्तिक चरितार्थता दुहूक समन्वित अध्ययनसँ सिद्ध होइछ ।
______________


प्रकाशक : भवानी प्रकाशन
मुसल्लहपुरपटना-800006
सर्वाधिकार : भीमनाथ झा
परिवर्धित द्वितीय संस्करण : 1985
मुद्रक : मुरलीधर प्रेसपटना-800006

Sunday, May 22, 2016

परिचायिका / विद्यापति : भीमनाथ झा

इंटरनेट पर मैथिली साहित्कार सबहक जीवन आ कृतित्व पर विवरणात्मक लेख प्रायः अनुपलब्ध अछि। पाठकशोधार्थी आ विद्यार्थी सबहक लेल ई स्थिति बहुत असुविधाजनक अछि । भीमनाथ झाक कृति 'परिचायिका' एहि दिसा मे नीक मदति कसकैत अछि। 'मैथिली मंडनसमय समय पर हुनक एहि कृति सँ साहित्यकार लोकनिक परिचय प्रस्तुत करबाक प्रयास करत। एकरा परिचायिका’ श्रृंखलाक अन्तर्गत प्रस्तुत कएल जायत।
ध्यान राखी जे 'परिचायिकामूलतः सूचनात्मक लेख सबहक संकलन थिक। इहो ध्यान राखी जे एकर तथ्यक संगहि दृष्टिकोण केँ अंतिम नहि मानल जा सकैछ। अपन मत सुनिश्चित करबा लेल आनो स्रोत सबहक मदति लेबाक चाही। 'मैथिली मंडन' पर कयल जा रहल प्रस्तुति त्रुटिहीन होइ, एहि बातक ध्यान राखल जाइत छैक, मुदा प्रामाणिक आ त्रुटिहीन संदर्भक रूपमे मूल किताबेक उपयोग कएल जेबाक चाही। 
एहि किताबसँ कोनो सामग्री केँ प्रस्तुत करैत 'मैथिली मंडन'क एहि सँ सहमत भेनय अनिवार्य नहि  अछि। एकर प्रस्तुति क पाछाँ विशुद्ध रूपें अकादमिक खगता केँ पूरा करबाक भावना अछि। एहि मे अपन व्यावसायिक हित साधब वा किनको व्यावसायिक अहित करबाक कोनो दुर्भावना निहित नहि अछि । एहि प्रस्तुतिक लेल लेखकसँ अनुमति लेल गेल छैक, तथापि कोनो सम्बद्ध पक्षकेँ जँ कोनो तरह तरहक आपत्ति होइन्ह, तँ ओकर निपटारा 'मैथिली मंडन'क प्राथमिकता होयत।
एतय 'परिचायिका'  सँ कविकोकिल विद्यापति आ हुनक कृतित्व पर केन्द्रित आलेख अक्षरशः प्रस्तुत कएल जा रहल अछि।


विद्यापति
[VIDYAPATI]
[पृष्ठ-8]

रेखांकन : कुमार सौरभ
मैथिली-साहित्यक ई विशाल प्रासाद जँ कोनो एक टा स्तम्भपर ठाढ़ अछि तँ ओ निस्संदेह विद्यापति थिकाह । मैथिली साहित्यक एहि विशाल वटवृक्षक जे सीर सभसँ गहीँर धरि गेल अछि, तकर नाम विद्यापति थिक । जँ विद्यापतिरूपी सूर्यक आविर्भाव मैथिली काव्य-गगनमे नहि भेल रहैत तँ रात्रिक व्याप्ति आर कतेक सय वर्ष बेसी भ’ जाइत, से के कहि सकैछ ? वस्तुतः ई कविकोकिलक काकलीएक प्रभाव छल जे मैथिली काव्योपवनमे वसन्तक साम्राज्य व्याप्त भ’   गेल ।
विद्यापति जाहि युगमे भेला से सक्रांति युग छल । मुसलमानी शासन दिल्लीमे जड़ि जमा चुकल छल । सम्पूर्ण राष्ट्र ओकर प्रभाव-क्षेत्रमे आबि रहल छल । किन्तु, मिथिला बाँचल छल । तकर कारण ई छल जे एहि ठामक लोककेँ राजनीतिसँ ओतेक रूचि नहि. सभ सांस्कृतिक एकतामे आबद्ध छल । ओही समयमे कर्णाटवंशीय अन्तिम नरेश हरिसिंहदेव द्वारा पाँजिक व्यवस्था(1326 ई.) आरम्भ कयल गेल । ई आइयो भलेँ जर्जरे भ’ गेल हो, विद्यमान अछिए । मिथिलाक सांस्कृतिक पुनरूद्धार भेल । एहि पुनरूद्धारमे विद्यापतिक पूर्वज महत्वपूर्ण योगदान देने छलाह ।
          किछु वर्षक बाद मिथिलोमे मुसलमानी शासनक स्थापना भेल । से तँ भेल, किन्तु मिथिलाक सांस्कृतिक स्वरूप अपरिवर्तित रहल । एकर श्रेय जाहि किछु महापुरूषकेँ देल जाइत छनि ताहिमे विद्यापति अग्रगण्य छथि । कारण, ई अपन संस्कृत-अवहट्ट-मैथिली-रचना –रचना द्वारा जनमानसमे अपन संस्कृतिक प्रति समर्पणक भाव जाग्रत कयलनि । विद्यापतिक शैवसर्वस्वसार, गंगावाक्यावली, दुर्गाभक्ति तरंगगिणी, वर्षकृत्य, गयापत्तलक आदि रचना मिथिलाक धार्मिक संस्कार ओ कौलिक व्यवहारकेँ सुरक्षित रखबामे सहायक सिद्ध भेल । किन्तु, मैथिल एकताकेँ एकसूत्रमे आबद्ध रखबामे हिनक मैथिली पदावलीकेँ सर्वाधिक श्रेय प्राप्त छैक । विद्यापति तत्कालीन सामाजिक संघटनक रक्षा अपन व्यवहार-गीत द्वारा तथा धार्मिक भावनात्मक रक्षा भक्तिपदक माध्यमसँ कयलनि ।
          विद्यापतिक पूर्वज अनेक पीढ़ीसँ राज्याश्रयी छलाह । ओलोकनि विद्वताक बलपर राज्याश्रयण प्राप्त कयने छलाह । एहिसँ ई सिद्ध होइछ जे हिनक कुल विद्वानक कुल तँ छले, राज्यपोषित सेहो छल, तेँ प्रतिष्ठितो अवश्य छल ।
          जन्म- विद्यापति स्वयं अपन जन्मक सम्बन्धमे कतहु नहि कहने छथि । तेँ, अन्य सामग्रीक आधारपर, प्रकारान्तरसँ , हिनक जन्म-समयक निर्धारण कयल गेल अछि । एहि प्रसंग विभिन्न विद्वानमे मतभेद अछि ।
सर्वप्रथम ओहि सूत्र सभक विषयमे विचार कयल जाइछ, जाहि आधारपर हिनक जन्म-कालक निर्धारण कयल गेल अछि ।  ओ सूत्रसभ निम्नलिखित अछि-
(1) दरभंगा राज-पुस्तकालयमे सुरक्षित विद्यापति द्वारा लिखित श्रीमद्भागवतक प्रतिलिपि । एकरा विद्यापति राजबनौलीमे ल.सं. 309मे लिखलनि ।
[पृष्ठ-9]
(2) कवि (विद्यापति) द्वारा लिखनावलीक रचना कालक उल्लेख ल.सं. 299मे भेल अछि ।
(3) अबहट्टक एक गीतमे महाराज शिवसिंहक सत्तारूढ़ होयबाक तिथि ल.सं. 263 लिखल भेटैत अछि । एहिमे ल.सं.क अतिरिक्त शक संवतक उल्लेख सेहो छैक-1324 अर्थात् 1402 ई. ।
(4) कीर्तिलताक द्वितीय पल्लवमे असलान द्वारा गणेश्वर रायक हत्याक समय लिखल गेल अछि ल. सं. 293 ।
अबहट्टक-गीतक आधार पर ल.सं. (लक्ष्मण संवत)क प्रारम्भक पता चलि गेल अछि । एहि आधारपर ल.सं. शक संवत् 1031, अर्थात् 1109 ई. सँ प्रारम्भ होइत अछि ।
चन्दाझा ‘पुरुष-परीक्षा’क अनुवादक भूमिकामे लिखने छथि जे जनश्रुतिक आधारपर ज्ञात होइछ जे विद्यापति महाराज शिवसिंहसँ दू वर्षक जेठ छलाह ।  शिवसिंह पचासम वर्षमे राजा भेलाह । विद्यापति ओहि समयमे बाबन वर्षक रहल होयताह । राजा शिवसिंह 1402 ई. मे सत्तासीन भेल छलाह । एहि आधारपर विद्यापतिक जन्म निश्चित होइत अछि 1350 ई. मे । डॉ. सुभद्र झा, प्रो. रमानाथ झा तथा पं. शसिनाथ झा एही मतक समर्थक छथि, किन्तु म.म. डॉ. उमेश मिश्र तथा डॉ. जयकान्त मिश्र हिनक जन्म-काल 1360 ई. मानलनि अछि ।
मृत्यु- हिनक मृत्युक सम्बन्धमे सुप्रसिद्ध पद – ‘विद्यापतिक आयु अवसान कार्तिक धवल त्रयोदशि जान’- आनो आधारसँ सिद्ध होइछ ।
ई ज्ञात होइछ जे राजा शिवसिंह तीन वर्ष नओ मास धरि राज्य कयलनि । तकर बाद, मुसलमानक संग युद्ध करैत ओ निपत्ता भ’ गेलाह । ओ 1402 ई. मे सत्तासीन भेल छलाह तथा 1406 ई. धरि राजा रहल छलाह । विद्यापति राजा शिवसिंहक निपत्ता भेलाक बत्तीस वर्षक बाद हुनका स्वप्नमे देखने छलाह । अर्थात् ताबत धरि विद्यापति जीवित छलाह । ओ स्वप्न देखने छल होयताह 1438-39ई. मे । तकर आगां वर्ष हिनक देहान्त भेल होयतनि, अर्थात् 1439-40 ई. मे ।
डॉ. सुभद्र झाक अनुसार हिनक निधन 1448सँ 61 ई.क बीचमे भेलनि । डॉ. उमेश मिश्रक अनुसार 1446 ई. मे ई दिवंगत भेलाह । तथ्य जे हो, मुदा ई दीर्घजीवी भेलाह ताहिमे संदेह नहि ।
भनिता – विद्यापति जाहि-जाहि राजाक दरबारमे रहलाह, ताहि सभ राजाक लेल गीतक रचना कयलनि । सभसँ बेसी गीत शिवसिंहक लेल लिखलनि, जे हिनक समवयस्क छलथिन । हिनक गीतक भनितामे राजाक संग रानीक नामक सेहो उल्लेख अछि । एहि क्रमने सबसँ बेसी लखिमा, तखन मोदवती, सोरमदेवी, मेधा देवी, सुखमादेवीक नाम उल्लेख भेटैत अछि । एकर अतिरिक्त देवसिंह-हासिनी देवी, अर्जुन सिंह कमला देवी, राधवासिंह मोदवती तथा सोनमति, बैजलदेव चन्दलदेवी आदिक नाम हिनक गीतक भनितामे भेटैछ । किछु आनो भनितायुक्त पद विद्यापतिक नामसँ प्राप्त अछि, यथा रमापति, दामोदर, जयराम, कविराज आदि, किन्तु ओहि पद सभक जाँच हेतु अनुसन्धान अपेक्षित अछि ।
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उपनाम- विद्यापति अपन जीवने कालमे बड़ प्रसिद्ध भ’ गेल छलाह । हिनक अनेक पदबी अथवा उपनाम भेटैत अछि, यथा- अभिनव जयदेव, सुकवि-कण्ठहार, महाराज पण्डित, राजपण्डित, सरस कवि, नव कविशेखर, कवि-कण्ठहार, कविवर, सुकवि, नव जयदेव । कवि कोकिल तँ हिनक नामक पर्याय भ’ गेल अछि । ई सभ उपनाम गुणबोधक थिक । एहिसँ विद्यापतिक काव्यात्मक विशेषताक तथा लोकप्रियताक परिचय ज्ञात होइत अछि ।
कृति- संस्कृत, अवहट्ट तथा मैथिली- एही तीन भाषामे विद्यापतिक रचना भेटैत अछि ।ई सभसँ अधिक लिखलनि संस्कृतमे, जाहिमे छोट-पैघ मिलाक’ हिनक क दर्जन ग्रन्थ अछि । अवहट्टमे दू गोट ग्रन्थ तथा मैथिलीमे पुस्तक तँ नहि, केवल पद प्राप्त अछि, जकर संख्या सात-आठ सय धरि एखन गल अछि । एकर अतिरिक्त एकटा नाटक अछि ।
संस्कृत कृति- भूपरिक्रमा, विभागसागर, दान-वाक्यावली, पुरुष-परीक्षा, शैवसर्वस्वसार ओ शैवसर्वस्वसार प्रमाणभूत पुराण-संग्रह, गंगावाक्यावली, दुर्गाभक्तितरंगणी, मणिमंजरी, लिखनावली, गयापत्तलक, लर्षकृत्य तथा व्याडिभक्तितरंगिनी ।
अवहट्ट-कृति-  कीर्त्तिलता तथा कीर्त्तिपताका ।
नाटक – गोरक्षविजय । एहिमे कथोपकथन एवं निर्देश संस्कृत आ प्राकृतमे अछि । मैथिलीक प्रयोग गीतमेतँ अछिए जे आनो ठाम भेटैछ । प्रो. रमानाथ झा एकरा संस्कृत-प्राकृत नाटक मानैत छथि, किन्तु डॉ. जयकान्त मिश्र भाषा-नाटक ।
मैथिली – मैथिलीमे हिनक लिखल पदसभ, जे विद्यापति पदावलीक नामसँ प्रसिद्ध अछि, अनेक स्रोतसँ प्राप्त भेल अछि । यैह पदावली हिनक कवि व्यक्तित्वकेँ कालजयी बना देने अछि । विद्यापति पदावली अनेक व्यक्ति आ अनेक संस्था द्वारा प्रकाशित भेल अछि । एहिमे मुख्य अछि शिवनन्दन ठाकुरक विद्यापतिक विशुद्ध पदावली, पुस्तक भंडार द्वारा प्रकाशित रामबृक्ष बेनीपुरीक विद्यापति-पदावली, डॉ. सुभद्र झाक विद्यापति गीत संग्रह, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद पटना द्वारा प्रकाशित विद्यापति पदावलीक तीन खण्ड, मैथिली अकादमी, पटना द्वारा प्रकाशित पं. गोविन्द झाक विद्यापति पदावली । एकर अतिरिक्त आरो अनेक संकलन छपल अछि ।
विद्यापतिक पद सभ निम्नलिखित स्रोतसँ प्राप्त भेल अछि-
(1) नेपाल तड़िपत- ई नेपाल सरकारक दरबार पुस्तकालयमे सुरक्षित अछि । ई सभसँ पुरान मानल जाइत अछि । डॉ. सुभद्र झाक अनुसार ई सोरहम शताब्दीक पाण्डुलिपि थिक, मुदा लिपि-विशेषज्ञक अनुसार अठाहरम शताब्दीक । एहिमे 184 गोट पद अछि, जाहिमे 261 टा पद विद्यापतिक भनितासँ युक्त अछि । एकर फोटो स्टेट पटना विश्वविद्यालय तथा पटना कालेजक पुस्तकालय मे अछि । एहि आधारपर दू गोट संग्रह डॉ. सुभद्र झा एवं बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना द्वारा प्रकाशित भेल अछि ।
(2) रामभद्रपुर तड़िपत- ई दरभंगा जिलाक रामभद्रपुर गाममे पाओल गेल छल । सम्प्रति एकर मूल प्रति लुप्त भ’ गेल अछि । एकर फोटो-प्रति बिहार –
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- राष्ट्रभाषा परिषदमे उपलब्ध अछि । एहिमे बीचक पन्ना उड़ल अछि । प्राप्त पाण्डुलिपिमे 445 गोट पद अछि । शिवनन्दन ठाकुर  एकरे आधार पर 84 पदक विद्यापति विशुद्ध पदावलीक संग्रह कयने छलाह ।
(3) तरौनी तड़िपत – तरौनी (दरभंगा)क स्व. लोकनाथ झाक ओहि ठाम श्रीमद्भागवतक संग पदावलीयोक तड़िपत सुरक्षित छल । मोहनी मोहन दत्त एकरा प्राप्त कयलनि, हुनकासँ ई नगेन्द्रनाथ गुप्तकेँ भेटलनि । ओ कलकत्ता विश्वविद्यालयमे एकरा जमा कयलनि, मुदा बादमे ओत’ ई लुप्त भ’ गेल । नरेन्द्रनाथ गुप्तक अनुसार ओहिमे 350 पद छल, किन्तु, ओ 239 मात्र पदक संकलन कयलनि । तेँ, निश्चित पद संख्या कहल नहि जा सकैछ । किछु पदक भनितामे विद्यापतिक नहि, आन कविक नाम अछि ।
(4.) रागतरंगिणी- लोचनकृत रागतरंगिणीक प्राचीन हस्तलएख आब लुप्त भ गेल अछि । राजप्रेस, दरभंगासँ प्रकाशित एकर आदि संस्करममे विद्यापतिक एकाबन गोट पद अछि । रागतरंगिणीरचना संगीतशास्त्रकेँ दृष्टिमे राखि क’ कयल अछि ।
(5)  वैष्णव पदावली- ब्रजबुलि-साहित्यमे अनेक पद्य संग्रह प्राप्त अछि, जाहिमे विद्यापतिक पद सोहो संकलित अछि । राधामोहन ठाकुरक पादामृत-समुद्रमे 64 पद, गोकुलानन्द सेनक पदकल्पतरुमे 161 पद,  दीनबन्धुदासक संकीर्तनामृतमे 10 पद तथा अज्ञात व्यक्ति द्वारा संकलित कीर्तनानन्दमे 58 गोट पद विद्यापतिक नामसँ संकलित अछि ।
(6) लोककंठसं उपलब्ध पद- जार्ज ग्रियर्सन 84 टा पद प्रकाशित करबौलनि । चन्दाझाक सहायतासँ नगेन्द्रनाथ गुप्त 663 टा पद उपलब्ध कयलनि । एकर अतिरिक्त अन्यो किछु स्रोतसं पदसभ प्राप्त भेल अछि ।
विद्यापतिक काव्य साहित्यक मुख्य विशेषता थिक गेयधर्मिता, निर्दोष आवेगात्मक भावाभिव्यक्ति, संक्षिप्तता, भावक वि विधता पौराणिक आख्यान तथा संस्कृत-रीतिक पालन एवं भनिताक प्रयोग ।”
विद्यापति जनसाहित्यक निर्माण कयलनि तथा मानव हृदयक मूलभूत वासनाकेँ अत्यन्त सूक्ष्मतासँ यथावत चित्रण कयलनि । ई रागताललयाश्रित कोमलकान्त पदावलीक रचना कयलनि जाहिमे माधुर्यगुण परिपूर्ण अछि । ई संस्कृत-काव्यरीतिक भाषा-साहित्यमे अत्यन्त मनोहर तथा सफल प्रयोग कयलनि ।
हिनक सम्पूर्ण पदावलीकेँ,  अध्ययनक सुविधा हेतु, मोटामोटी चारि भागमे बाँटल जा सकैछ- (1) श्रृंगारिक गीत (2) भक्तिगीत (3) व्यवहारगीत तथा (4) कूटपद ।
हिनक सम्पूर्ण श्रृंगारिक पदावलीकेँ दू भागमे बाँटि क’ बूझल जा सकैत अछि । प्रथमतः ओहन श्रृंगारिक पद जाहिमे गोपीलोकनिक संग, विशेषतः राधाक संग, श्री कृष्णक प्रणयलीलाक वर्णन अछि । द्वितीयतः ओहन श्रृंगारिक पद जाहिमे नरनारीक सहज आकर्षणमूलक प्रेम आ विलासक, विविध भाव आ अवस्थाक, स्वाभाविक चित्रण अछि । राधाकेँ खण्डिता भेलाक पश्चात सखीक उक्ति कृष्णक प्रति द्रष्टव्य-
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हृदय तोहर जानि न भेला । परक रतन आनि मअ’ देला ।
कएल माधव, हमे अकाजे । हाथि मेराउलि सिंह-समाजे ।
राखह माधव मोरि विनती । देहे परिहरि पर-युवती ।
चुम्बने नयन काजर गेला । दसने अधर खण्डित भेला ।
पीन पयोधर नखरे मन्दा । जनि महेसर-शेखर चन्दा ।
न मुख वचन, न मन थीरे । काम्प घनहन सबे सरीरे ।
घर गुरुजन दुरजन शंका । लओलह माधव, मोहि कलंका ।
भन विद्यापति तुअ’ दूती भोरि । चेतन गोपए बेकत चोरि ।

हिनक भक्तिगीतकेँ सेहो तीन कोटिमे विभाजित कयल जा सकैछ । पहिल कोटिक गीतमे शिवविषयक नचारी ओ महेशवानी अबैछ । दोसर कोटिक गीतमे अबैछ अबैछ शक्ति, गंगा आ विष्णुक स्तुति, तथा तेसर कोटिमे शान्तिपदकेँ राखल जा सकैछ । भक्तिभक्तिपदमे हिनक गोसाउनिक गीत तँ मिथिलाक कोनो उत्सवक मंगलाचरणे भ’ गेल अछि-
जय-जय भैरवि असुरभयाउनि पसुपति –भाविनी माया ।
सहज सुमति वर दिअ हे गोसाउनि अनुगत गति तुअ पाया ।।
वासर-रइनि सवासने सोभित, चरन चन्द-मनि-चूड़ा ।
कतओक दैत मारि मुहे मेरल, कतन उगलि उगिलि करू कूड़ा ।।
सामर वदन नयन अनुरंजित, जलद जोग फुल कोका ।
कटकट विकट ओठ –फुट-पाँड़रि, लिधुर फेन उठि फोका ।।
घन घन घनन घुघुरू कटि बाजय, हन हन कर तुअ काता ।
विद्यापति कवि तुअ पद सेवक पुत्र बिसरू जनु माता ।।

हिनक व्यवहारक गीतकेँ सेहो दू भागमे बाँटल जा सकैछ । पहिलमे भिन्न-भिन्न समयक अनुकूल गीत, यथा फागु, चैत, बारहमासा, चौमासा, पावस-प्रसंग आदि । दोसर प्रकारक गीतमे भिन्न-भिन्न अवसरक उपयुक्त-यथा योग, उचिती, कोबर, कुमार आदि अबैत अछि ।
विद्यापतिक कूटपद सेहो भेटैत अछि ।
हिनक प्रसंग डॉ. सुभद्र झा एक ठाम लिखने छथि “विद्यापति प्रीति-सत्ताक  प्रबल समर्थक छथि । आध्यात्मिक तत्वें विवेचित हिनक पदावलीक गीतसभ सोहो एकरे पुष्टि करैछ ।”
इतिहास प्रसिद्ध अछि जे ई बिसपी (मधुवनी जिला)क निवासी छलाह, जे गाम हिनका महाराज शिवसिंहक दिससँ पुरस्कार-स्वरूप प्राप्त भेल छलनि । किंवदन्ति ईहो अछि जे स्वयं महादेव उगना नाम राखि हिनक नोकर बनि सेवा कयने छलाह तथा गंगा हिनका अपन कोरमे लेबाक हेतु धार छोड़िक’ हिनका लग उपस्थित भेल छलीह । एहि किंवदन्तीमे सत्यता जे हो, किन्तु ई बात तँ आब प्रमाणित भ’ चुकल अछि जे हिनक काव्यमे ओहन किछु तत्व अवश्य अछि जे ओकरा कथमपि मर’ नहि देलक अछि  तथा आइयो ओ ओहने चिरनवीन बुझि पड़ैत अछि । यावत ई मिथिला, ई सभ्यता रहत, ताधरि विद्यापतिक पद रहत, ता धरि ई स्वयं रहता । कीर्तिर्यस्य सजीवति ।
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प्रकाशक : भवानी प्रकाशन
मुसल्लहपुरपटना-800006
सर्वाधिकार : भीमनाथ झा
परिवर्धित द्वितीय संस्करण : 1985

मुद्रक : मुरलीधर प्रेसपटना-800006