Saturday, January 21, 2017

श्मशान-धथूर / ललित

मैथिलीक प्रतिष्ठित कथाकार ललित अपन पीढ़ीक मैथिली आ हिन्दीक प्रतिष्ठित रचनाकार राजकमल चौधरीक घनिष्ठ मित्र छलाह । एहि कारणें राजकमल चौधरी पर लिखल हुनक संस्मरण श्मशान-धथूर राजकमल चौधरी पर लिखल गेल संस्मरण सबहक मध्य विशिष्ट स्थान रखैत अछि ।
एहि संस्मरण मे दुनू गोटक आत्मीयता, अंतरंगता आ आपसी तालमेलक अतिरिक्त व्यक्ति आ रचनाकार राजकमलसँ जुड़ल कतेको महत्वपूर्ण प्रसंग आ सूचनाक उल्लेख छैक । हमरा जानकारीमे एखन धरि कतेको दृष्टिकोणसँ महत्वपूर्ण ई संस्मरण इंटरनेट पर उपलब्ध नहि छलहि । मैथिली पाठक आ शोधार्थी धरि एकर सहज उपलब्धिक भावनासँ विभूति आनन्द द्वारा संपादित ललित समग्र’*  सँ एतय ई संस्मरण आभार सहित प्रस्तुत कएल जा रहल अछि । 

श्मशान-धथूर 
[राजकमल चौधरी पर केन्द्रित संस्मरण]
ललित

शाक्त मतेँ प्रतिष्ठापित दशहु महाविहारमे थिकीह एकटा भगवती छिन्नमस्ता । अनेक नामे अभिव्यंजित-प्रचण्ड-चण्डिका एवं बज्रवैरोचनी आदि । ई भगवती केहेन तँ शवासना, विहलित चिकुरा, दिगम्बरा, अपन वाम तरहत्थीपर अपन छिन्न मुण्ड रखने, काटल गरासँ निःसृत रक्तधारा अपने छिन्न-मुण्डसँ पिबैत । अपन रक्तक अपनहि पान करयवाली । अपनहि रक्तमे आचूड़-स्नात ।
आ एहि भगवतीकेँ प्रिय की? धथूर । श्मशान-धथूर । सामान्य धथूर नहि, श्मशान धथूर ।
मणीन्द्र, फूलराजा, मणीन्द्र राजकमल, राजकमल, जकर केलियोडो-स्कोपिक’ बहुरंगी व्यक्तित्व रहैक, एहि श्मशान-धथूरसँ बड़ साम्य रखैत छल । जे एकाकी निर्जन प्रान्तरमे जीबि सकल । जकर चतुर्दिक मसानक परम शान्ति रहलै । गंध रहैक आत्मदाहक । चिताक गंध । जीवनोक गंध रक्त-स्वेद-वीर्य मिश्रित । कोलाहल जे यत्र-तत्र रहैक से अर्थी ढोनिहारक । किन्तु, जीवनक नानाविध तमिस्रामे जे ज्योति-शिखा राजकमलकेँ भेटलैक से रहैक आत्माक प्रखर-ज्योति । गरल-कण्ठ सदाशिव जकाँ जीवनक ओही महाश्मशानमे पद्मासन लगा ओ परमतत्व ताकय लागल । जन्मान्तरक पिपासा ले’ लोकारण्यमे अमृत-कुम्भक अन्वेषी । राजकमल की ताकल, की भेटलैक । जीवन केर अन्तिम दिनमे ओ शाक्त भक्त भ’ गेल । तारा-उपासक । कोशीक छाड़नि मनुआ धार ताहिमे नहायवाली दुबरिया कांतिक गौरवर्णा ओ उग्रताराकेँ कोकिल कण्ठें स्तोत्र सुनवय वाली ओएह जानथि । अपन अबोध शिशुकेँ छोड़ि जे चलि गेलीह । जनिक ममताहीन राजकमल यत्र-तत्र-सर्वत्र भ्रमित रहल ।

1951-सौराठ-सभा

राजवंशी, हमर अभिन्न मित्र ओ बालसखा, आबि कहलक-काज ठीक भ’ गेल । चल कने लड़का देखि लही । महिषी, सहरसा । मूल छनि बुधवारे महिषी । आ देखल- गहुमा रंग, दोहरा काठी, धोती-कुर्त्तामे । सबसँ मार्मिक आँखि । तीव्र अन्तर्भेदी दृष्टिपात । नाम मणीन्द्र नारायण चौधरी ।
-बी.कॉममे छथि । हिन्दीमे लिखितहु छथि । कइक गोट कविता प्रकाशितो भेल छनि ।
आश्चर्य लागल । बी.कॉम, फेर साहित्यकार ! मणीन्द्र केर स्प्लिट परसोनेलिटी (Split personality) सँ प्रथम साक्षात्कार भेल ।

1954

दरभंगा राजक श्मशान । माधवेश्वर । संध्याकाल ओतहि हमरा लोकनिक चौखड़ी जुटय । हम, मायानन्द, उग्रानन्द, दिवानाथ (सम्प्रति डिप्टी कलक्टर) एवं रामू (प्रो. रमाकान्त, अंग्रेजी विभाग, च. मि. कॉलेज) । हम विकट दरिद्राक मारल सरस्वती स्कूल, लेहरिया सरायमे मास्टरी करैत रही । मायानन्द श्री अमरजीक देखरेखमे मैथिलीमे गीत लिखथि ।
ओहि दिन दिवानाथ जाहि जीनियस सँ बहुत उत्कण्ठापूर्वक भेंट करौलक से रहथि ‘फूलराजा’ । मणीन्द्रक नाम ओहि दिनुक । माधवेश्वरक पक्का घाट, पीपरक निहुरल डारि तर राजकमलक कविता-पाठ । ओजस्वी स्वरेँ । हिन्दी कविता सभ । ‘हंस ओ समन्दर का नाच’ इत्यादि । विलक्षण शब्द-व्यंजना । बहुत प्रतीकसँ भरल । दिवानाथ ओ रामू अपन स्वभावक अनुसार चुटकी लेबासँ बाज नहि आबय । कविताक पंक्ति छल-
‘जिन्दगी नहीं पेराम्बुलेटर,
कि घूम आओ आया के साथ,
मौत की बढ़ती हुयी साया के साथ ।’
रामू हँसल, बाजल-फूल, ई मात्र तुकबन्दी छैक ! श्रोताकेँ अर्थहीन वाकजालसँ अभिभूत करबाक प्रयास । एकर की अर्थ ?
जीवनमे अनवरत जेना कटु-तिक्त प्रहार सहबाक ई व्यक्ति अभ्यस्त हो, बिहुँसि बाजल- एखन नहि बुझबही । कविताक अन्तिम पंक्ति अउकन स्मरण अछि :
‘ये निराला को, नजरूल इस्लाम को
पागल करार देते हैं, और गाते हैं- वीणावादिनी वर दे ।’
54'क भयानक बाढ़ि । हम एवं राजकमल संगहि गाम जाइत रही । हम ओकरा मैथिली मे लिखबाक बड़ आग्रह कयल । हमर उद्देश्य रहय जे मैथिली केँ एकटा प्रतिभाशाली लेखक प्राप्त हो । राजकमल कहल-भाइ ललित, हमरा मैथिली लिखबामे नहि ओराइत अछि !
अंत मे निर्णय भेल जे आरम्भमे किछु कथाक हम हिन्दीसँ अनुवाद कय देबैक ओ बादमे राजकमल स्वयं लीखत । अपना वादाक अनुसार राजकमल अपन कथा 'अपराजिता' पठाओल जकर मैथिली अनुवाद कय 'वैदेही' मे छापल । तकरा बाद 'फुलपरासवाली' तक केर जे कथा रहैक से मूल हिन्दी, तकर भाषानुवाद हमरे कयल रहय ।

1955-56-57

एहि समयमे राजकमलसँ आओर अधिक घनिष्ठता प्राप्त भेल । ओ महाविलक्षण व्यक्तित्वक लोक रहय । ओ पटना सेक्रेटेरियेटमे शिक्षा विभागमे रहय तथा डेरा रहैक रामकृष्ण मिशन लेनमे । दरभंगा मे ओ अधिक काल हमरे ओतय रहय अथवा फेर दिवानाथ किम्बा रामू ओतय । हम कमीशनक परीक्षामे बैसबाक तैयारीमे रही ओ पटनामे राजकमले ओतय ठहरी ।
ओहि समयक किछु घटना आवश्यक अछि जे प्रकाशमे आबय । राजकमल केर पत्राचार ओइ दिन चलैत रहैक मसूरी, हैपीवेली स्थित सावित्री शर्मासँ । दरभंगाक पतासँ हमरा केयरमे राजकमलकेँ पत्र अबैक मसूरीसँ । हम एहि सम्बन्धक घोर विरोधी रही । विशेष कय राजकमलक विवाह हमरे गॉव एवं ओकर सार श्रीराजवंशी हमर अभिन्न बालसखा अछि । किन्तु राजकमल एवं सावित्रीक ई पत्राचार बादमे पावन-परिणयमे बदलि गेल ।
राजकमल अद्भुत मित्र ओ बड़ आवेशी लोक रहय । पटना मे ओकरा ओतय जखन टिकी तँ अधिक काल हमरा पाइ घचि जाय; ओ राजकमल अन्तर्यामी जकाँ जेना बूझि जाय । ओ टिकट, रिक्शा खर्च एवं पाथेय बिनु मँगनहि जुटा दैत छल ।
’56मे राजकमल जखन दरभंगा आयल तँ संगमे नव वस्तु-जात रहैक, विशेष क’ अंगुरमे ‘प्लेटिनम’ केर अंगूठी । विदाइक वस्तु-जात । कोडक केर फोल्डिंग कैमरा ।
1957मे जखन ई नोकरी कयल तँ लिखनाइसँ सम्बंध छूटि गेल । राजकमलो पटना छोड़ि देलक । पता लागल , किछु दिन मसूरीमे रहय, फेर कलकत्ता गेल, तत्पश्चात फेर पटनामे आबि फ्री लान्सिंग लेखक भ’ गेल ।
1963मे विभागीय परीक्षा देबा लेल पटना गेल रही तं हँसराज रहय मिथिला मिहिरमे । ओकरे सहयोगें बड़ श्रमसँ ताकल राजकमलकेँ, जे ओइ समय चीना-कोठीमे रहैत छल । जूनक संध्या । राजसँ भेंट भेल बहुतो दिनुक बाद । सेकेण्ड शो सिनेमा देखलाक बाद दुहू गोटा गप्फ करय बैसलहुँ तँ गप्पमे भोर भ’ गेल । हम श्रोता रही । 

राजकमलक मसूरी प्रवास-

मसूरीक प्राण भ’ गेल राजकमल । आइ ब्यूटी-शो । आइ मिस-मसूरीक चुनाव, आइ ई फंक्शन, काल्हि ओ । मगर सावित्रीसँ भेद बढ़य लगलइ । मसूरीक राति । धुनल तूर जकाँ बर्फ खसि रहल छलैक । मध्य-निशासँ बेसी भ’ रहल छैक, ओ मोट ओवरकोट, कनझप्पा टोपी पहिरने एक क्लबसँ बाहर भेल । पयर डगमगाइत । चारूकातसँ अनभिज्ञ । बहुत मुश्किलसँ ओ हैपीवेलीक एकटा बंगलाक गेट तक पहुँचल । ओतय सीढ़ीपर बैसि गेल ।  फेर सीढ़िये पर नहुँए टगि आरामसँ पड़ि रहल । बड्ड पीने रहय । पास-आउट क’ गेल । बंगलाक एकटा खिड़कीक शीशासँ इजोत अबैत रहय । प्रायः एकर प्रतीक्षा करैत रहैक । फेर दरबाजा खूजल । शाल ओढ़ने एकटा शुभ्रवसना नारी-मूर्ति चुपचाप एहि बेहोश व्यक्ति लग आयल । पहिने एकरा उठयबाक प्रयत्न कयल; असफल रहि चुपचाप एकरा आंगुरसँ प्लेटिनमक अंगूठी निकाल आपस बँगलामे चलि गेल ।
प्रात डिनर टेबुलपर राज पुछलकै- वह प्लेटिनम की अंगूठी वापस कर दो !
- नहीं उसके लिए शायद आपकी कहीं जान न चली जाय !
क्षण भरि मौन रहि राज बाजल- मैं आज चला जाऊँगा ।
परिवारमे मौन रहैक । मसूरीमे राजक अन्तिम दिन संत्रासमय रहैक । एकर डेराक वातावरण बोझिल । ककरोसँ केओ गप्प नहि कयनिहार ।
ओवरकोट पहिरने कान्हपर बड़का टा चमड़ाक एटेची लदने राज बस-स्टैण्ड दिस जाइत रहय । एकाकी, मित्रहीन, साधनहीन । सैकड़ो मसूरीक मित्रमे केओ अपन नहि रहैक । देहरादूनवला बसपर बैसि रहल । दूर पहाड़पर बर्फ जमल रहैक, देवदारू आ चीड़क गाछ पहाड़ी हवामे डोलि रहल छल । बस देहरादून दिस पहाड़ त्यागि नीचा दिस विदा भेल । श्मशान धथूर, मसूरीक ऐश्वर्यमय ड्राइँगरूमक गमलासँ सम्बंध तोड़ि फेर विदा भेल जीवनक महाश्मशानमे अपन इष्टदेवी-छिन्नमस्ताकेँ ताकय । पाथेय ओतबे रहैक जे पटना कहुनाके पहुँचि जाय ।
एकर बाद दुइ बेर आओर भेंट भेल जखन ओ राजेन्द्र सर्जिकल वार्डमे इलाजमे छल । हम ट्रेनिंगमे राँची जा रहल छलहुँ । ओहि समय ओकरामे अजीब परिवर्त्तन देखल । साधना-उपासना दिस बड़ अभिरूचि ओ जिज्ञासा । संगहि रीगल होटलमे चाय-नाश्ता कयल । ओ राजकमलसँ आखिरी भेंट रहय ।
राजकमलक कृतित्वपर ओकर व्यक्तित्वक छाप सहजहिं भेटत ।  ओ बड़ पढ़ल लोक छल । विश्वसाहित्य केर प्रायः कोनहुटा प्रसिद्ध उपन्यास किंवा काव्य-ग्रन्थ नहि छल जे ओकर पढ़ल नहि हो । परन्तु जीवनक आरम्भ कालमे ओ शरतबाबूसँ बड़ प्रभावित रहय आ ओ प्रभाव अन्त तक बनल रहलैक । जीवनमे मातृहीन रहय ओ अपन कहयबला कम चीज रहैक, तेँ ओकर कथामे एकटा आत्मदाह, आत्मध्वंसक तत्त्व यत्र-तत्र भेटत, विशेष रूपेँ ओकर हिन्दी काव्य-संग्रह ‘कंकावती’मे, जे आधुनिक हिन्दी काव्यमे अन्तिम शब्द अछि । ओकर बड़ कम प्रति छपल रहय ।
ओकर मैथिली कथा सभमे जे तत्त्व सभसँ अधिक स्फुट अछि से थिक शॉक (Shock)  एवं सरप्राइज (Surprise) केर । एकटा आघात एवं चकित करबाक तत्त्व । संगहि आत्मबलिदानक तत्त्व भेटत ओ फेर जेना राजकमल केर ‘स्पिल्ट’ व्यक्तित्व रहैक तहिना वस्तुवादक तत्त्व सेहो भेटत, अपनाकेँ जीवैत रखबाक घोर संघर्ष । ‘फुलपरासवाली’ जँ रूग्ण पतिक देख-रेखमे जी-जान लगा दैत छथि तँ ‘साँझक गाछ’मे भौजी दोसर पुरुष ध’ बैसैत छथि । ‘ललका पाग’मे कुलीन मैथिल महिलाक आत्म-बलिदान परिलक्षित होयत ।
राजकमल केर कथामे मोपाँसाक शिल्प-विन्यास भेटत । अपन प्रखर व्यक्तित्व जकाँ ओकर कथामे बेसी आहे-माहे नहि भेटत; सोझे कथ्यपर प्रहार । कथ्य ओ कहबाक लूरि, जकरा ‘फॉर्म’ कहबैक, राजकमल केर कृतित्वमे दुनू छैक ।
सर्वोपरि जे भेटत राजकमल केर लेखनमे से थिक ‘गोपन तत्त्व’ । एकटा कुहेलिका । एकटा कुहेस । जतय द्रष्टाकेँ अपन कल्पनानुसार ‘इमेज’ गढ़बाक स्वतन्त्रता रहि जाइ छैक । तहिना राजकमल केर कृतित्वमे Unexplained events भेटत । छोट-छोट कड़ीकेँ धाँगि क’ आगू बढ़बाक प्रवृत्ति । प्रायः लेखक द्वारा ‘भोगल यथार्थ’ एतेक भयावह थिक जकर पूर्ण अभिव्यक्ति करबाक साहस किंवा औचित्य ओ नहि बुझैत अछि । अन्हार सीढ़ीपर चढ़’ लय ओ पाठककेँ छोड़ि दैत अछि । ओकर निर्वाणोन्मुख दीप-शिखाक अभिव्यक्ति ‘मुक्ति प्रसंग’ एकर साक्षी थिक । समस्त ‘इमेजरी’सँ भरल-पड़ल ।
किन्तु, सभ किछु रहितहुँ राजकमल केर लेखनमे मिथिलाक माटि-पानि अछि । मनुआ धारक कल-कल निनाद अछि । बट-वृक्षक सहस्रबाहु सांध्य तमिस्रामे लीन ।
गंगा तरंग चुम्बित चरणा, हिमगिरि शोभित निर्झरणाक भू-भाग केर हास-अश्रुमय आनन गढ़यबला अप्रतिम शिल्पी छल राजकमल ।
किन्तु नहि, ओकर पात्र, ओकर चरित्रक हास-अश्रु, ओकर कथा केर सहज-सरल परिणति एवं अकृत्रिम शिल्प-विन्यास केँ काल-पात्र-स्थानसँ आबद्ध नहि कयल जा सकैछ । ओकर कृतित्व, ‘कंकावती’, ‘मुक्ति प्रसंग’, ‘मछली मरी हुई’ ‘एक बीमार सौ अनार’ देश-काल-पात्रसँ ऊपर थिक । विशेष क’ ओकर ‘कंकावती’क मूल्यांकन कहियो केओ क सकत से भरोस अछि, कारण-
निरवधि च कालो,
विपुला च पृथ्वी ।

(स्मृतिसंध्या, भाग-एक, मैथिली अकादमी, पटना, 1980)
·   
    
[*ललित समग्र (पृष्ठ 300-306) : प्रथम संस्करण -2012 : मैथिली अकादमी. 740/800 लालबहादुर शास्त्री नगर, पटना-23]

Wednesday, June 1, 2016

परिचायिका / उमापति : भीमनाथ झा

 इंटरनेट पर मैथिली साहित्कार सबहक जीवन आ कृतित्व पर विवरणात्मक लेख प्रायः अनुपलब्ध अछि। पाठकशोधार्थी आ विद्यार्थी सबहक लेल ई स्थिति बहुत असुविधाजनक अछि । भीमनाथ झाक कृति 'परिचायिका' एहि दिसा मे नीक मदति कसकैत अछि। 'मैथिली मंडनसमय समय पर हुनक एहि कृति सँ साहित्यकार लोकनिक परिचय प्रस्तुत करबाक प्रयास करत। एकरा परिचायिका’ श्रृंखलाक अन्तर्गत प्रस्तुत कएल जायत। 
ध्यान राखी जे 'परिचायिकामूलतः सूचनात्मक लेख सबहक संकलन थिक। इहो ध्यान राखी जे एकर तथ्यक संगहि दृष्टिकोण केँ अंतिम नहि मानल जा सकैछ। अपन मत सुनिश्चित करबा लेल आनो स्रोत सबहक मदति लेबाक चाही। 'मैथिली मंडन' पर कयल जा रहल प्रस्तुति त्रुटिहीन होइ, एहि बातक ध्यान राखल जाइत छैक, मुदा प्रामाणिक आ त्रुटिहीन संदर्भक रूपमे मूल किताबेक उपयोग कएल जेबाक चाही।  
एहि किताबसँ कोनो सामग्री केँ प्रस्तुत करैत 'मैथिली मंडन'क एहि सँ सहमत भेनय अनिवार्य नहि  अछि। एकर प्रस्तुति क पाछाँ विशुद्ध रूपें अकादमिक खगता केँ पूरा करबाक भावना अछि। एहि मे अपन व्यावसायिक हित साधब वा किनको व्यावसायिक अहित करबाक कोनो दुर्भावना निहित नहि अछि । एहि प्रस्तुतिक लेल लेखकसँ अनुमति लेल गेल छैक, तथापि कोनो सम्बद्ध पक्षकेँ जँ कोनो तरह तरहक आपत्ति होइन्ह, तँ ओकर निपटारा 'मैथिली मंडन'क प्राथमिकता होयत। 
एतय  'परिचायिका'  सँ उमापति उपाध्याय आ हुनक कृतित्व पर केन्द्रित आलेख अक्षरशः प्रस्तुत कएल जा रहल अछि।

उमापति
[UMAPATI]
[पृष्ठ-17]

उमापति उपाध्याय मैथिली साहित्यमे कविसँ बेसी नाटककारक रूपमे विख्यात छथि । हिनक दू गोट उपाधि प्रसिद्ध अछि- ‘कविपण्डितमुख्य’ आओर ‘सुमति’ । प्रथम उपाधिसँ ई द्योतित होइछ जे ई कवि आ पण्डितमे मुख्य छलाह, अर्थात अग्रगण्य कवियो छलाह, मान्य विद्वानो । दोसर उपाधि हिनक शिष्टता, सौजन्य आ सामाजिक मान्यताक परिचायक छल । ई कोइलख (मधुवनी) गामक निवासी छलाह ।
          हिनक कविताक पोथी कोनो उपलब्ध नहि अछि । उपलब्ध अछि एकमात्र कृति, से थिक नाटक, जकरा कीर्तनिया नाटक कहल जाइछ, नाम थिक ओकर ‘पारिजात-हरण’ । पारिजात-हरणक गद्य-पद्य संस्कृत आ प्राकृतमे अछि, बीच-बीचमे गीत अछि मैथिलीमे, जकर संख्या एकैस अछि ।
       अन्य प्राचीन कवि जकाँ हिनको समय विवादास्पद रहल । एखनहुँ धरि विभिन्न विद्वान लोकनिक बीच एक्यमत्य नहि भेल अछि ।एखनहुँ धरि विभिन्न विद्वान लोकनिक बीच एक्यमत्य नहि भेल अछि । प्रो. सुरेन्द्र झा ‘सुमन’ हिनक समयक प्रसंग प्रचलित विभिन्न मतकेँ सूत्रबद्ध करैत ‘पारिजातहरण’क भूमिकामे लिखैत छथि – “डॉ. ग्रियर्सन मिथिलेश-हरिहरदेव दूहूक एकवाक्यता करैत कर्णाटवंशीय महाराज हरिसिंहदेव (1305-24)क आश्रयमे हिनक स्थिति मानैत छथि । पण्डित चेतनाथ झा अपन भूमिकामे नेपाल स्थित सप्तरी परगनाक अन्तर्गत मकमानीक हिन्दूपति (17म शताब्दी) अभिधानधारी एक माण्डलिक राजाक आश्रित पण्डित रूपमे उमापतिक परिचय दैत कहैत छथि जे- एतय मैथिल विद्वानकेँ प्रश्रय भेटैत छल ओ एही सप्तरीमे विद्यापति सेहो ‘लिखनावली’क रचना कयने छथि । बाबू भोलालालदास ‘यवनवनच्छेदन-कुठारकरवालेन, विष्णोर्दशमावतारेण हरिहरदेवेन’ आदि विशेषण-विशेष्यक सार्थकता विजयनगरम राज्यक संस्थापक हरिहरदेव-बुक्कदेव (14 श.)क संग कहैत हिन्दुपति-पदेँ हुनकहि आश्रयक संकेत दैत छथि । डॉ. जयकान्त मिश्रक मतेँ उक्त हिन्दूपति बुन्देलखण्डक नरेश महाराज छत्रसालक प्रपौत्र गढ़मण्डलक राजा हिन्दुपति (17 श.) छथि, जनिक राजगुरू उमापति उपाध्याय छलाह । केओ ‘हम अति बूढ़ नही मरखाहि’क किंवदन्तीक आधार पर गुरू गोकुलनाथक समयमे हिनक स्थिति मानैत महाराज राघवसिंह (1704-1740, अठाहरम शताब्दी)क समय स्थिर करैत छथि । एहि विवादास्पद प्रश्नक जटिलता तखन आरो बढ़ि जाइछ जखन ‘केटेगोरस केटेगोरप’ केर सूची निबंधक अनुसार उमापति नामक चौदह गोट कविक उल्लेख भेटैछ ।”
अपन मान्यताकेँ विभिन्न प्रमाणसँ पुष्ट करैत श्री ‘सुमन’ आगाँ कहैत छथि-
पारिजात-हरणक किछु क्रियापद एवं नामपदसँ चौदहम शताब्दीक मैथिली अवहट्ट रचनाक साम्य भेटैछ । तखन की क्षति जे उमापतिकेँ हरिसिंहदेवक सभासदक मान्यता देल जाय ?
          डॉ. रामदेव झाक अनुसार “सोलहम शताब्दीक तेसर चरण ओ सतरहम शताब्दीक प्रथम तीन चरणक मध्य-आगाँ-पाछाँ किछु वर्ष छोड़िक’- उमापतिक –
[पृष्ठ-18]
- जीवनकाल रहल होयतनि । कोनहु स्थितिमे उमापतिक जीवन-कालकेँ 1570 ई.सँ पूर्व ओ 1670 ई,क पश्चात नहि खीचल जा सकैत अछि । ओना दू चारि वर्षक अन्तर जे हो तँ से नगण्य थिक ।”
          पारिजात-हरण- ई उमापतिक एकमात्र उपलब्ध लघुकाय नाटक थिक, जाहिमे एकैस गोट मैथिली गीत, उनैस गोट संस्कृत-श्लोक तथा संवाद संस्कृत ओ प्राकृतमे अछि । मैथिली-गीत आ संस्कृत-श्लोक पाण्डित्यपूर्ण तँअछिए जे कविक विलक्षण सर्जनात्मक प्रतिभासँ मंडित सेहो अछि ।  एकर “कथानक हरिवंशपुराणक 124-35 अध्यायक आधार पर अछि, भागवत (10 स्कं. उत्त.) मे सेहो एहि अंशक कथासूत्र भेटैछ । पौराणिक घटनामे जत’ इन्द्रक संग प्रद्युम्न युद्धमे जाइत छथि तत’ नाटकमे कृष्णक संग अर्जुन दैत छथि ।” डॉ. जयकान्त मिश्र कीर्तनियाँ नाटक मध्य एकर बड़ महत्वपूर्ण स्थान देने छथि ।
          एकर कथावस्तु अत्यंत छोट अछि ।
          नारद स्वर्गसँ पारिजात नामक फूल आनि कृष्णकेँ उपहार दैत छथि । ओ रुक्मिणी केँ द’ दैत छथिन । एहिपर छोटकी महारानी सत्यभामा कुपित भ’ जाइत छथिन । हुनक प्रेमक वशीभूत श्रीकृष्ण स्वर्ग जाक’ इन्द्रसँ युद्ध क’, पारिजात वृक्षक क’ हरण क’ आनि सत्यभामाकेँ अर्पित करैत छथिन । बस कथानक एतबे टा अछि । सम्पूर्ण नाटकमे एकरे पल्लवित कयल गेल अछि ।
मोटामोटी पढ़ला उत्तर यद्यपि ई वीररस-प्रधान नाटक बुझना जाइछ, किन्तु कथानकक मूल भावना पर दृष्टिपात कयने स्पष्ट भ जाइछ जे ई श्रृंगाररस- प्रधान नाटक थिक ।
एहि नाटकक महत्व एकर मैथिली गीत ल’क’ विशेष अछि । उमापतिक गीत सूक्ष्म कल्पना ओ परिपक्व कवित्वक परिचायक थिक । द्रष्टव्य-
हरि सोँ प्रेम आस कय लाओल, पाओल परिभव ठामे
जलधर छाहरि तर हम सुतलहुँ, आतप भेल परिणामे
सखि हे!  मन जनु करिअ मलाने
अपन करम फल हम उपभोगव तोहें किअ तजह पराने
पुरूष पिरित रिति हुँनि जँओ बिसरब तइयो न हुनकर दोसे
कतेक जतन धरि जओ परिपालिओ साप न मानय पोसे
कबहु नेह पुनु नहि परगासबफल अपमाने
बेरि सहस्र दश अमिअ भिजविअ कोमल न होअ पखाने
गुरू उमापति हरि होएत परसन मन होएत अवसाने
सकल नृपति हिन्दूपति जिउ महारानि विरमाने
एहि गीतसभपर दृष्टिपात कयलासँ ज्ञात होइछ जे “उमापति काव्य भाव ओ भाषा दुहूमे पाण्डित्यपूर्ण अछि । रचनाशैलीमे विद्यापतिक अनुकरण रहितहुँ, विद्यापतिक भाषामे जे सरलता अछि, अथवा ओहिमे जे भावनाक उद्दाम प्रवाह अछि तकर निर्वाह उमापति नहि क’ सकलाह अछि ।यैह कारण थिक जे विद्यापतिक पद जत’ सकल–सा धारणक जीहपर विराजमान अछि, तत’ उमापतिक पद पण्डितेक मण्डलीमे घुरियाक’ रहि गेल अछि ।
[पृष्ठ-19]
उमापतिक गीत भनहि जनसाधारणक बीच लोकप्रिय नहि रहओ, किन्तु विद्वान रसिक मण्डलीक बीच रसक बरिसाते आनि दैछ । विरहिणी नायिकाक वियोगव्यथाक एहन सूक्ष्म विश्लेषण साहित्यमे तकलहुँ भेटत वा नहि । सामान्य अवस्थामे जैह वस्तु उद्दीपनक साधन बनैछ, सैह सभ विरहिणीक लेल अरुचिकरे नहि अपितु प्राण-घातक भ’ गेल अछि । नायिकाक ओहन अवस्थाक कौशल-पूर्वक वर्णन क’ दूती नायकक सुपुरुषत्व केँ चुनौती दैछ ।
          कि कहब माधव तनिक विशेषे । अपनहुँ तन धनि पाव कलेशे ।
          अपनुक आनन आरसि हेरी । चानक भरम काँप कत बेरी ।
          भरमहु निय कर उरपर आनी । परसे तरस सरसीरूह जानी ।
          चिकुर-निकर निय नयन निहारी । जलधर जाल जानि हिय हारी ।
अपन वचन पिक-रव अनुमाने । हरि हरि तेहु परि तेजय पराने ।
माधव आबहु करिअ समधाने । सुपुरूष निठुर न रहए निदाने ।
सुमति उमापति भन परमाने । माहेसरी देइ हिन्दूपति जाने ।
तहिना नायिकाक मान-मोचन करबा लेल नायक उक्ति नारी-मनोविज्ञानक सूक्ष्म व्याख्या प्रस्तुत करैत अछि-
अरुण पुरुब दिस बहलि संगर निशि गगन मलिन भेल चन्दा
मुन्दि गेलि कुमुदिनि तइओ तोहर धनि मून्दल मुख-अरविन्दा
कमल वदन कुवलय दुहु लोचन अधर मधुरि निरमाने
सगर शरीर कुसुम तुअ सिरजल किए तुअ हृदय-पखाने
असकति कर कंकण नहि पहिरसि हृदय भार भेल भारे
गिरि सम गरूअ मान नहि मुंचसि अपरूप तुअ बेबहारे
अबगुन परिहरि हरषि हेरु धनि मानक अवधि विहाने
हिमगिरि-कूमरि चरण हृदय धरि सुमति उमापति भाने
परिजातहरणक गीतसभक विशेषता प्रो. सुमनक निम्नलिखित पंक्तिमे एक्के ठाम जगजियार भ’ गेल अछि- “प्रत्येक गीत प्रसंगोपात्त रहितहुँ रसोज्ज्वल मुक्तक गीत कहल जायत । रसविन्यासक संगहि गेयधर्मितासँ गीतसभ ओतप्रोत अछि, रसोपयुक्त राग-संगीतसँ युक्त अछि । वसन्तरागमे उद्यान एवं प्रेमवर्णन, मालव ओ विभासमे मान-विरह, आशावरीमे भक्ति-प्रार्थना, विरह-अभिनिवेशमे केदारराग सर्वथा रसोपयुक्त भेल अछि । एकर अतिरिक्त राजविजय, ललित, मल्हार, बड़ारी, नट, पंचम-एतबा राग प्रयोग एहिमे भेटैछ । एहिमे संगीतक संगहि नृत्यकलाकेँ सेहो उच्च स्थान देल गेल अछि ।...भाषाक दृष्टिएँ कवि-पण्डित उमापतिक रचना उत्यन्त परिमार्जित, अलंकृत, संगहि सरस सुबोध !”
पारिजातहरणक विशिष्च साहित्यक मूल्यक प्रसंग डॉ. जयकान्त मिश्रक ई कथन द्रष्टव्य- “It is one of the best Maithili plays of the ‘Regular’ type, It is remarkable for its literary merits and provides a very good entertainment. The poet is well-constructed events follow one another in a necessary connection”
          पारिजातहरणक अतिरिक्तो उमापतिक किछु मैथिली-पद प्राप्त अछि, सेहो काव्यकलाक दृष्टिएँ महत्वपूर्ण अछि ।

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प्रकाशक : भवानी प्रकाशनमुसल्लहपुरपटना-800006
सर्वाधिकार : भीमनाथ झा
परिवर्धित द्वितीय संस्करण : 1985
मुद्रक : मुरलीधर प्रेसपटना-800006

Tuesday, May 31, 2016

बिहार मे मिथिला भाषाक स्थान / रमानाथ झा + पं. भुवनेश्वर झा

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रमानाथ झा रचनावलीक तेसर खंडक भूमिकामे संपादक मोहन भारद्वाज सूचना देनय छथि जे ‘बिहार मे मिथिला भाषाक स्थान’ लेख असगरे रमानाथ झा नहि लिखने छथि अपितु ओ आ पंडित भुवनेश्वर झा मिलि के ई लेख तैयार केनय छलाह । 1929 मे प्रकाशित एहि लेखक कतेको कारणसँ ऐतिहासिक महत्व छै , ई लेख पढ़ैत स्पष्ट होएत जायत । स्वतंत्रतासँ करीब दूई-ढाई दशक पहिने मैथिली भाषाके हिन्दीक बोली सिद्ध करबाक संगहि मिथिलाक संस्कृति आ मैथिल अस्मिताकेँ नकारबाक प्रयास आ प्रचार जोर पकड़ि चुकल छल । प्रतिवाद स्वरूप जे लिखल जा रहल छल ई लेख तकरे प्रतिनिधित्व करैत अछि ।
एहि लेख केर किछु अंश आलोचनोक विषय अछि । मैथिल संस्कृतिकेँ शुद्ध सनातनी आचारसँ बान्हल समाजक व्यवहारक रूपमे रेखांकित कए एकर महिमामंडनक प्रयास मैथिल संस्कृति आ समाजक प्रति समग्रतामूलक दृष्टिकोणक अभावक परिचायक थिक । एहि लेख केर कोनो अंशक आलोचना करैत काल एहू बातक ध्यान राखैक चाही जे ई लेख एकटा लेख श्रृंखलाक प्रतिक्रियामे लिखल गेल छल आ दोसर ई जे एकर पृष्ठभूमिमे 1929क समाज छल । पंडित भुवनेश्वर झाक विषयमे जानकारीक अभाव अछि मुदा कमसँ कम रमानाथ झाक बादक लेख सबहक आधार पर कहल जा सकैछ जे समयक संग हुनक दृष्टिकोण बेस परिपक्व आ समग्रतामूलक होइत गेलेन्हि ।
कहल जा सकैछ जे मैथिली भाषा अस्मिताक संदर्भक कोनो स्तरीय अकादमिक बहस लेल एहि लेखक महत्व असंदिग्ध छैक । 
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बिहार मे मिथिला भाषाक स्थान
रमानाथ झा + पं. भुवनेश्वर झा

[पृष्ठ संख्या-14 ]
अनारम्भो हि कार्याणां प्रथमं बुद्धिलक्षणम् ।
प्रारब्धस्यान्तगमनं द्वितीयं बुद्धिलक्षणम् ।।
मैथिलसमाज मे अकर्मण्यता तया अस्तव्यस्तताक जेहन प्राधान्य अछि तेहन आन समाज मे दृष्टिगोचर नहि होएत । प्राय: सामाजिक जीवनक महता केँ बुझनिहार बहुत थोड़ व्यक्ति भेटताह । वैयक्तिक स्वार्थक समक्ष सामाजिक कल्याणक अवहेलना जाहि रूपें हमरा लोकनि के रहल छी से सबकाँ विदित अछि । व्यक्ति तथा समाज मे अन्योन्याश्रय सम्बन्ध अछि । एकक अस्तित्व पर दोसरक जीवन निर्भर अछि । समाज एक प्रकारक अंग थिक । जेना स्थूल शरीरक एक अवयव पर आघात भेला सँ सम्पूर्ण शरीर मे पीड़ाक संचार होइत अछि, तहिना व्यक्ति क दुख सँ समष्टि दुःखित तथा पीड़ित होइत अछि । यावत् धरि शरीर मे चेतना क संचार अछि तावत्पर्यन्त शरीरक प्रत्येक अवयव समष्टि रूप सँ शरीरक रक्षा मे तत्पर रहैत अछि । जैखन शरीर चेतना-विहीन भै जाइत अछि तैखन कर्मशीलताक स्रोत सर्वदाक हेतु रुकि जाइत अछि । कार्यशीलताक दोसर नाम जीवन अछि । जाहि समाजक व्यक्ति सामूहिक सुख साधनार्थ थोड़बो त्याग नहिं करैत छथि ताहि समाजक नाश अवश्यम्भावी अछि । एहन समाज के मृतप्राय बुझक चाही । मैथिल-समाजक अवस्था एखन अत्यन्त दयनीय अछि । समाजक कल्याण-साधनार्थ अनेक चेष्टा कैल गेल परंच समाज क कुम्भकर्णी निद्रा एखन धरि भंग नहिं भेल । एकर की कारण भै सकैत अछि । प्रश्न क उत्तर अत्यन्त सरल अछि । हमरा लोकनि सामाजिक उन्नति के आत्मोन्नतिक साधन नहिं बुझैत छी । प्रयत्न मे सफलता नहिं भेटवाक दोसर कारण ई अछि जे हमरा लोकनि में समुचित अध्यवसाय नहिं अछि । नीतिकारक जे श्लोक हम ऊपर उद्घृत कैने छी ताहि श्लोक मे केहेन उपयोगी शिक्षा अछि । मैथिलसमाज मे कोनो वस्तुक कमी नहि । यदि कोनो वस्तुक अभाव अछि तँ ओ अछि सबल संगठन क हेतु दृढ संकल्प । समाज क शक्ति स्रोत विभिन्न मार्ग मे प्रवाहित भै रहल अछि । उद्योग एहन हैबाक चली जे समस्त स्रोत एक दिशा में प्रवाहित हो । मैंथिलसमाज कैं एकताक सूत्र में आबद्ध करबाक –
[15 ]
- अनेक साधन अछि । एहि क्षुद्र लेख मे हम मिथिला भाषाकक महत्ता पर प्रकाश देम चाहे छी । कारण जे भाषाक अस्तित्व पर समाज क जीवन निश्चित अछि ।
मिथिला-भाषा में केहन जीवनी शक्ति अछि एकरा व्यक्त करबाक ततेक प्रयोजन एहि लेख मे नहिं । मैथिल कोकिल विद्यापतिक अमर वाणी सँ जे भाषा लालित तथा वर्द्धित भेलि अछि तकरा गौरव तथा भाषा-सौष्ठव मे अविश्वास कैनिहार अवश्य दयाक पात्र छथि । विहार में यदि कोनो भाषा प्रमुख स्थान क अधिकारिणी अछि तँ ओ अछि मिथिला भाषा । परन्तु दुर्भाग्यक विषय अछि जे हमरा लोकनि क अकर्मण्यता क कारणे एखन धरि मिथिला भाषा अपन न्याय्य स्थान कैँ नहि ग्रहण कैलक । बिहार में मिथिला-भाषा-भाषीक की संख्या अछि एकरा प्रमाण में हम Census of India, 1921 (Vol. VII), Bihar and Orissa Part- I सँ किछु अंश उद्घृत करैत छी ।
"The most common language in the province is Hindi or Urdu which is spoken by two third of the population. In north and south Behar it is practically universal, in Orissa it is spoken by 3 and in Chota Nagpur Plateau by 30 persons out of every 100. The language spoken is not really Hindi in the eye of the Linguistic survey, but the Bihari a language of the eastern group of the outer subbranch of the Indo-Aryan language. It has three principal dialects :- Maithili, which is spoken in North Bihar, excluding Saran and Champaran, Magahi, which is spoken in south Bihar excluding Shahabad, and Bhojpuri, which is spoken in the line of districts that from western fringe of the province Champaran to Palamu.
According to calculation the number of Maithili speakers is 10,272,711 of Magahi speakers 5,327,55 and Bhojpuri speakers 6,826,900.
(page 210,211)
उपर्युक्त अवतरण क सारांश ई अछि जे बिहार प्रान्तक साधारण भाषा हिन्दी अथवा उर्दू थिक । जनसंख्याक दू-तेहाई मनुष्य हिन्दी-भाषा-भाषी छथि । उत्तरीय तया दक्षिणी बिहार में सब गोटे इयेह भाषा बजैत छथि । उडीसा तथा छोटा नागपुर मे हिन्दी-भाषा बजनिहारक संख्या प्रतिशत क्रमश: 3 तथा 30 अछि । परन्तु प्रान्तस्थित भाषासमूहक यथार्थ निरीक्षण सँ ई स्पष्ट अछि जे एहि भाषा कैँ 'हिन्दी' कहब ठीक नहिँ, प्रत्युत एकरा 'बिहारी' कहब अधिक उपयुक्त । एहि भाषाक उत्पति भारतीय आर्य भाषाक पूर्वीय उपशाखा सँ अछि । एहि भाषा में प्रधान तीन 'बोली’(dialects)अछि । सारन क्या चम्पारन जिलाक अतिरिक्त उत्तरी बिहारक आन सब जिला मे मैथिली बाजल जाइत अछि । दक्षिणी बिहार क भाषा 'मगही' थिक । दक्षिणी बिहार मे केवल 'शाहावाद' टा एहन जिला अछि जते 'मगही' क प्रचार नहि । प्रान्तक पश्चिमीय सीमा पर अवस्थित आन सब जिला में 'भोजपुरी' क प्रसार अछि । चम्पारन –
[16 ]
- सँ पलामू पर्यन्त भोजपुरीक विस्तार बुझ क चाही।
गणना क अनुसार मिथिला-भाषा-भाषीक संख्या 10272711,'मगही' बजनिहारक 5327553, एवं भोजपुरी-भाषा-भाषीक; 6826990 अछि ।
उपर्युक्त अवतरण सँ स्पष्टतः ज्ञात होएत जे बिहार मे मैथिली-भाषा-भाषी कतेक छथि । की जाहि भाषाक एतेक बजनिहार होथि से भाषा अग्रण्य कहा सकैत अछि ? मैथिली भाषा केँ एम.ए. मे स्थान दै कलकत्ता-युनिवरसिटी जेहन उदारता तथा कृतज्ञताक परिचय देलक अछि से सर्वथा श्लाघनीय तया अनुकरणीय अछि । मैथिली भाषाक पथ सर्वथा कण्टकाकीर्ण अछि । कारण जे शिक्षित समुदाय में बहुतो व्यक्ति एहन छथि जनिका मिथिला भाषाक नाम सुनैत कँपकपी भै जाइत छन्हि ।
किछु दिन भेल पटना सँ प्रकाशित 'देश' नामक समाचार पत्र मे 'बिहार मे मिथिलाभाषा' शीर्षक एक लेखमाला छपल छल । उक्त लेख मे मिथिला तथा मैथिल संस्कृति पर एहन निराधार तथा कुत्सित आक्षेप कैल गेल अछि जाहि सँ लेखक महोदयक विषयानभिज्ञता प्रकट होइत अछि। हुनक कथन छैन्हि जे मिथिलाभाषा क तँ चर्चा कोन मिथिला प्रान्तहु क अस्तित्व नहि अछि तथा जाहि संस्कृति वा आचार-विचार के हमरा लोकनि मैथिल विशेषण दैत छी से यथार्थत: प्राचीन मैथिल नहि थिक । हुनक दिचारदृष्टि मे मैथिल जाति यदि अति प्राचीन काल मै कतहु छलो तथापि ओकर शेष आब कतहु नहि अछि तथा मगधक आधिपत्य समय मे सबहु एक भय मागध भय गेलहुँ, अत: हमरा लोकनि सभ बिहारी थिकहुँ, हिन्दी हमरा लोकनिक मातृभाषा थिक तथा बिहार हमर देश थिक ।" संक्षेपतया है ओहि लेखमाला क प्रतिपाद्य विषय छैन्ह । हमरा पूर्ण विश्वास अछि जे केओ मैथिल एहन निर्मूल ओ भ्रमात्मक कथनक युक्तियुक्त खण्डन कय सकैत अछि । किन्तु खेदक विषय थिक जे एहि लेखहुक लिखनिहार अपना केँ मैथिल कहैत छथि । अतएव यदि अन्य मैथिल पर नहि तँ मैथिलेतर व्यक्ति पर हुनक लेखक प्रभाव पड़ि सकैतअछि। हम सम्प्रति हुनक लेखक खण्डन करय नहि चाहैत छी किन्तु पंजाब सँ बंगाल तथा नेपाल सेँ कुमारी अन्तरीप धरि के हिन्दू अपन प्राचीन सभ्यता जो हिन्दूघर्म के जनैत मैथिल ओ मिथिला सँ परिचित नहि छथि? राजर्षि जनकक राज्य मिथिला छलैन्ह । याज्ञवल्क्य मिथिला मे छलाह जनिके धर्म-शास्त्र प्राय: बंगाल छाड़ि समस्त भारतवर्ष मे प्रमाण मानल जाइत अछि। बौद्धधर्म के घोर प्रतिद्वंद्वी मंडन मिश्र, उदयनाचार्य, प्रभृति, षट्दर्शनपण्डित वाचस्पतिमिश्र, शङ्करमिश्र आदि अपन प्रकाण्ड विद्वता तथा अविचलित धर्मपरता सँ केवल मिथिला केँ नहिं समस्त हिन्दू जाति केँ उज्ज्वल –
[17 ]
- बनओने छथि । हिन्दू धर्मशास्त्र ओ हिन्दू दर्शनशास्त्रक एक मुख्य केन्द्र मिथिला आदि सँ अछि । न्यायदर्शन क प्रवर्त्तक गौतम मिथिला क छलाह । एखनहु मिथिला क भिन्न धर्मशास्त्र बृटिश गवर्नमेन्ट द्वारा स्वीकृत अछि तथापि यदि केओ कहथि जे मिथिला क अस्तित्व नहिँ अछि तै हुनका मूर्ख छाड़ि आओर की कहि सकैत   छियैन्ह ।
यदि मैथिल केँ एखनहुँ कोनहु वस्तुक अभिमान छैन्ह तँ अपन प्राचीन सभ्यता ओ धर्मपरताक यदि कोनो समाजक आचार जो विचार याज्ञवल्क्यादिस्मृति क अनुसरण एखनहु करैत अछि तँ जो समाज मैथिल थिक । हम प्रौढ़ता सँ कहैत छी जे हमरा लोकनि सम्प्रति अपन धर्मपरकताक हेतु अन्य समाज में असभ्य कहबैत छी तथापि समस्त उत्तर भारतवर्ष क कोन जाति हमरा संग एहि अंश मे स्पर्धा कय सकैत अछि? अति प्राचीनकाल सँ अनेको कष्ट सह्य करैत हमरा लोकनि अपन शुद्ध आर्यरक्त ओ श्रौतस्मार्त्त आचार-विचार मात्रहिक रक्षा करैत अयलहुँ अछि । हमरा समाज मे बौद्धधर्मक प्रभाव लक्षित होइत अछि । अहिंसाक प्राधान्य सदा सँ हमरा ओहि ठाम अछि । सभ समाज मे हमरा लोकनि सदा सँ एही हेतुक भिन्न रहि अयलहुं अछि तथा यथार्थ जे केओ व्यक्ति सनातनघर्माभिज्ञ होयताह से हमरा लोकनि क सत्कार करितहि छथि । भारत क अन्यान्य प्रान्त मे जतय प्राचीन संस्कृति क लेश छैक हमरा लोकनि सत्कृत होइतहिं छी । तखन दक्षिण भागलपुरीय मैथिल हमरा किछु कहथु ओहि सँ हुनक अपन क्षुद्रता, मूर्खता ओ विषयानभिज्ञता मात्र द्योतित होइत छैन्ह ।
उक्त लेखमाला क प्रकाशित होएवाक कारण ई भेल जे गत अगस्त मास मे पटना मे मैथिल छात्रक संख्या विशेष बढ़ि गेल तथा एक समिति के स्थापना करब सबहि कै आवश्यक बुझना गेल । समितिक स्थापना भेला सन्ता येनकेनोपायेन मैथिली केँ पटना-युनिवर्सिटी मे कलकत्ता-युनिवर्सिटी जकाँ स्थान भेटय एकर यत्न करब ओकर एक मुख्य अंश बुझना गेल तथा जखन एकर यत्न होमय लागल तखन उल्लिखित लेखमालाक लेखक प्रभृतिक दिशि सँ एका घोर विरोध होमय लागल ओ एही प्रसंग मे जनताक चित्त कलुषित करवा क हेतु 'देश' मे उक्त लेख छपल । मैथिलीक विरोध मे हुनका लोकनि के मुस्काया तीनिटा युक्ति छैन्ह । “प्रथमतः मैथिली हिन्दीक अंग थिक ओ एकर उन्नति भेला सँ हिन्दीक उन्नति मे बाधा  होएत । (2) मैथिलीक साहित्य दरिद्र अछि तथा भागलपुर, चम्पारन आदिक मैथिल केँ मैथिली सिखवा में ओतबे कष्ट होएतैन्ह जतबा हिन्दी सिखवा मे । (3) मैथिलीक स्वीकृति 'मेला सँ सम्भव जे भविष्य मे मिथिला बिहार सँ भाषाभिन्नत्ताक कारणे प्रान्त भिन्नताहुक चेष्टा करय तथा लिपिसाम्य सँ बंगाल में अन्तर्भुक्त कय लेल   जाय ।'' पटना-समिति, अपना मे विरोध नहि हो अतएव एक प्रश्नावली बनाय मुख्य मुख्य मैथिल विद्वान म. म. डाक्टर श्री गंगानाथ झा प्रभृति सात गोटाक ओतय पठओलक तथा सबहिक उत्तर मैथिलीक घोर पक्ष मे आएल ।
[18 ]
राष्ट्रभाषाक नाम पर मैथिल लोकनि यदि अपन मातृभाषाक तिरस्कार करथि तँ हुनका लोकनि क अस्तित्वहि क लोप भय जयतैन्ह । राष्ट्रभाषा हिन्दी तँ समस्त भारतवर्षक होएत परंच कोनो प्रान्त अपन मातृभाषाक त्याग नहि कय रहल अछि । हमर साहित्यक सबसँ उज्जवल रत्न विद्यापति छथि तया उमापति, हर्षनाथ प्रभृति कतेको आओर छथि । अतएव साहित्यहुक दृष्टि सँ नितान्त दरिद्र मैथिली नहि कहल जाय सकैत अछि । शुद्ध मैथिली सिखवा मे प्राय: सभक उत्तर पहिने अछि जे दक्षिण भागलपुरीय व्यक्ति केँ छाड़ि आन सभ कें सुगमते होएतैक । प्रान्त विच्छेदक हेतुक जे विरोध अछि तकर सभ तिरस्कारपूर्ण उत्तर देलैन्ह अछि ओ हमरा लोकनि के अपना में ततबा भेद बुद्धि अछिए जे एक भाषाक स्वीकृति भेलहु सन्ता, ओहि मे विशेष वृद्धि क सम्भव नहिं । अतएव आब समय प्राप्त भेल अछि जे हमरा लोकनि कटिबद्ध भय तत्पर होइ जाहि सँ मैथिली आबहु स्वीकृत हो । हमरा तँ विश्वास अछि जे यदि पचीस वर्ष पूर्व मैथिलीक स्वीकृतिक हेतु यत्न कयल जाइत तँ आइ बिहार क भाषा हिन्दी नहि किन्तु मैथिली कहबैत । 1925 ई. मे पटना-युनिवर्सिटी मे मैथिली स्वीकृतक हेतु एक प्रस्तावो कयल गेल छल परंच मैथिलक पक्ष में बंगाली छाड़ि आओर केओ नहि भेल । मैथिलीक उन्नति भेनहि सन्ताँ मैथिल जातिहुक उन्नतिक आशा अछि ओ बिहारक सभ समाज के भय छैक जे जखन मैथिल अग्रसर भेल, ओ सभ सब केँ हरा कय अगुआ जाएत । अतएव अपन प्रान्त में हमरा लोकनि केँ चारूदिशि शत्रुए देखना जाइत   अछि । एतेक दिन तँ कोनो अपन पत्र नहि छल जाहि द्वारा एहि विषय क कोनो प्रचार कयल जाइत । जाब आशा अछि जे मिथिला अपन नामक मर्यादाक रक्षा करैत अपन भाषाक पूर्ण प्रचार करत । सम्प्रति निम्नलिखित प्रस्ताव हम समस्त समाजक समक्ष उपस्थित करैत छी ओ पूर्ण विश्वास अछि जे आबहु हमरा लोकनि यत्नपर भय जाएब जाहि सँ मैथिलीक उन्नति हो तैखन हमरहु लोकनि क उन्नति होएत ।
प्रस्ताव-
(1.)             दरभंगा मे एक मैथिली-साहित्य-परिषदक स्थापना हो जाहि सँ मैथिल विद्वान लोकनि सँ प्रार्थना कयल जाइन्ह जे ओ लोकनि मैथिली मे ग्रन्थ लीखि परिषद कैँ देथि ।
(2.)             मैथिल महासभा मे प्रस्ताव हो जे गवर्नमेन्ट सँ अनुरोध कयल जाइत अछि जे मैथिली के पटना युनिवर्सिटी मे स्थान हो । कारण मैथिल महासभा हमरा लोकनिक एकमात्र बृहत संघ अछि ।
(3.)             प्रत्येक स्थान मे एहि हेतु क सभा हो तथा सभठाम सँ गवर्नमेन्टक ओतय प्रार्थना कयल जाय तथा दरभंगा डि. बोर्ड में सबहि चेष्टा करथि जे प्राथमिक शिक्षा मैथिली मे अन्तत: एकोठाम प्रारम्द्रभ हो जाहि सँ ओकर –
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-           फलाफल बुझना जाइक ।
(4.)             यदि आवश्यक बुझना जाय तँ मैथिल महासभाक दिशि सँ Minister of Education तथा Vice-Chancellor Patna University क ओतय एक Deputation मैथिलीक स्वीकृति हेतु आबय ।
(5.)             प्रत्येक शहर मे मैथिल समितिक स्थापना हो ओ सभ क्यो एहि यत्न मे तत्पर भय जाइ अन्यथा आब दिनानुदिन सफलता कठिन भेल जाइत अधि जो सबहि हास्यास्पद भेल जाइत छी ।

(मिथिला, वर्ष- 1, अंक-.1, 1929)


साभार
आचार्य रमानाथ झा रचनावली -3
[प्रथम संस्करण-2010]
संकलन-सम्पादन: मोहन भारद्वाज
वाणी प्रकाशन, दिल्ली-11002

Sunday, May 29, 2016

मिथिला / मार्कण्डेय काटजू

भारतक सर्वोच्च न्यायालयक सेवानिवृत न्यायाधीश आ प्रेस काउन्सिल ऑफ इंडियाक पूर्व अध्यक्ष मार्कण्डेय काटजू बेबाकीसँ अपन विचार राखबा लेल जानल जाइत छथि । हुनक विचारसँ कएक बेर असहमत होइतो हुनक स्पष्ट नजरिया आ तात्कालिक मुद्दा सभपर प्रतिक्रियाशील रहबा लेल प्रशंसा कएल जाइत छनि । ई आलेख मूलतः हुनक एकटा ब्लॉग-पोस्टक थिकै, जे हुनक ब्लॉग - सत्यम् ब्रुयात' पर 27 दिसम्बर 2014केँ पोस्ट कएल गेल  छलैक । एहि ब्लॉग-पोस्टकेँ बहुत महत्त्वक सामग्री नहि कहल जा सकैत अछि, मुदा ई पोस्ट मिथिलाकेँ एकटा एहन अमैथिल व्यक्तिक नजरियासँ देखबाक अवसर प्रदान करैत अछि, जिनक प्रतिक्रियाकेँ पर्याप्त महत्त्व भेटैत रहलैक अछि । ध्यान देबा योग्य बात ई अछि जे ओ मिथिलाक भूमिकेँ महान दार्शनिक आ न्यायविद् लोकनिक जन्मभूमिक रूपमे चिन्हैत छथि आ तेँ ई भूमिक लेल हुनका मनमे अगाध श्रद्धा छनि । एहि ब्लॉग-पोस्टक अनुवाद लेखकक अनुमति प्राप्त केलाक उपरान्त कयल गेल अछि । अनुवाद करैत काल नीक अभिव्यक्तिक उद्देश्यसँ कएक ठाम किछु छूट अवश्य लेल गेल अछि ।



मिथिला
श्री मार्कण्डेय काटजू

अपन पछिला पोस्टमे हम महान न्यायिक दार्शनिक उदयनाचार्यक चर्चा केने छलहुँ । उदयनाचार्य प्रसिद्ध टीका न्याय कुसमांजलिक लेखक छथि । ओ मिथिलाक छलाह ।
          मिथिला, भारतक उत्तर बिहारमे (अंशतः नेपालोमे) अवस्थित एकटा क्षेत्र अछि, जतय हम कहियो नहि गेल छी, मुदा मरबासँ पहिने कमसँ कम एक बेर ओतए जेबाक सेहन्ता अछि । एकर कारण ई अछि जे एहिठाम बहुत पैघ संख्यामे असाधारण दार्शनिक, विद्वान आ कवि लोकनिक जन्म भेल छनि । गौतम, बुद्ध आ महावीर एतय रहलाह । उदयनाचार्य, जिनकर हम उल्लेख केने छी, हुनका अतिरिक्त कएकटा श्रेष्ठ विद्वान जाहिमे कुमारिल भट्ट, मंडन मिश्र, वाचस्पति मिश्र, डॉ. गंगा नाथ झा आदि छथि, केँ यैह भूमि जनम देनए अछि । महान कवि विद्यापति (1352-1448) सेहो मिथिलेक छलाह ।
एहन कहल जाइत अछि जे जखन आदि शंकराचार्य अपन गृह-राज्य केरलसँ उत्तर भारतक प्रसिद्ध मीमांसाविद् मंडन मिश्र (प्रख्यात मीमांसाविद् कुमारिल भट्टक शिष्य) सँ शास्त्रार्थक लेल आयल छलाह, आ ओ मंडन मिश्रक घरक रस्ता पूछलनि तँ हुनका कहल गेलनि जे मंडन मिश्रक घर एकटा गाछक तरमे छनि, जकर ठारिपर बैसल सुग्गा सभ बजैत रहै छै जे सत्य की थिक आ असत्य की थिक? मोक्ष कोना प्राप्त कएल जाइत छैक? इत्यादि । दोसर शब्दमे कही तँ ई जे मिथिला भरिमे कएकटा श्रेष्ठ विद्वान लोकनि छलाह, जिनका लोकनिक बीच वाद-प्रतिवाद चलैत रहैत छलनि ।
इलाहाबाद विश्वविद्यालयमे, जतय हम 1963 सँ 1967 धरि पढ़ने छलहुँ, ओतय मिथिलासँ आएल कएकटा श्रेष्ठ विद्वान कुलपति रहि चुकल छथि । डॉ0 गंगानाथ झा, मीमांसा शास्त्रक (जकर हमहुँ दीर्घकाल धरि अध्येता रहि चुकल छी), पैघ विद्वान छलाह । कुमारिल भट्टक तन्त्र वर्तिका’, ‘श्लोक वर्तिकाशाबर भाष्यआदि केर संस्कृतसँ अंग्रेजी अनुवादक माध्यमे ओ एकटा पैघ योगदान देलनि, जाहिसँ हम व्यक्तिगत रूपेँ लाभान्वित रहलहुँ । इलाहाबाद उच्च न्यायालयक न्यायाधीशक बतौर हम नियमित रूपसँ एहि किताब सबहक अध्ययन करबा लेल इलाहाबादक अल्फ्रेड पार्क स्थित डॉ. गंगानाथ झा पुस्तकालय जाएल करैत रही, जाहिसँ हमरा वैधानिक पाठ सबहक व्याख्या करबामे बड्ड मदति भेटल ।
हम पूर्व मीमांसाक अध्येता रहल छी, कियै कि ई शास्त्र व्याख्याक सिद्धान्त उपलब्ध करबैत अछि, जे वैधानिक नियम सबहक व्याख्या करबामे उपयोगी होइत अछि । एहि शास्त्रकेँ विकसित करएबला किछु श्रेष्ठ विद्वान लोकनि मिथिलेक छलाह । जखन हम इलाहाबाद उच्च न्यायालयक न्यायाधीश छलहुँ, हम एकटा पोथी व्याख्याक मीमांसा पद्धति (The Mimansa Rules of Interpretation)क पांडुलिपि तैयार केने छलहुँ । ई अंग्रेजीमे एहि विषयपर एकमात्र पोथी थिक (बाँकी सब पोथी संस्कृतमे छैक) । एकरा लेल एकटा प्रकाशकक जरूरति छलैक । इलाहाबादमे एकटा समारोहमे हमरा मिथिला विश्वविद्यालयक एकटा प्रोफेसर भेट भेलाह, हुनका पोथीक विषयमे बतौलियनि । हम हुनका कहलियनि - सर, अपने मिथिलाक छी, जे राजा जनक आ भारतक कतेको महानतम मीमांसाविद लोकनिक भूमि रहल अछि; कृपया एहि पोथीकेँ प्रकाशित कराबी ।ओ सकारात्मक प्रतिक्रिया देलनि, मुदा बादमे किछु केलथि नहि ।
मिथिलाक भाषा मैथिली, हमर सुनल मधुरतम भाषामेसँ एक अछि, हालाँकि हम एकरा बूझि नहि पबैत छियैक ।
जखन हम मद्रास उच्च न्यायालयमे मुख्य न्यायाधीश छलहुँ, मैथिली नामक एकटा तमिल वकील हमरा समक्ष प्रस्तुत भेली । हम हुनकासँ पूछलियनि जे कि ओ अपन नामक अर्थ जानैत छथि? ओ कहलियनि - नहि । तखन हम हुनका बतौलियनि जे एकर अर्थ होइछ - ओ जे मिथिलासँ सम्बद्ध अछि । मिथिला, उत्तर बिहारमे स्थित श्रेष्ठ दार्शनिक राजा जनकक आ भारतक किछु महानतम विद्वान लोकनिक भूमि थिक । राजा जनक सीताजीक पिता छलाह । सीताजीक विवाह भगवान राम संगे भेल छलनि ।
किछु दिन पहिने हमरा मिथिला अएबाक निमंत्रण भेटल छल । किछु पहिनहिसँ निर्धारित काजक कारणें हम एकर लाभ नहि उठा सकलहुँ, मुदा जँ ई निमन्त्रण आब भेटय तँ हम एकर लाभ उठेबा लेल तत्पर रहब ।

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मूल आलेखक लिंक : Mithila (Saturday, 27 December 2014)

[अंग्रेजीसँ अनुवाद : कुमार सौरभ]


स्पष्टीकरण :
गुगल सर्चसँ ज्ञात भेल जे मार्कण्डेय काटजूक एहि लेखक मैथिली अनुवाद प्रवीण नारायण चौधरी बहुत पहिने कए चुकल छथि । ई जानकारी रहितय तँ अनुवाद कार्यक श्रमसँ बचितहुँ । हमरा विचारें प्रवीण जीक अनुवाद हमर एहि अनुवादसँ बेसी नीक आ स्तरीय अछि । कृपया हुनक कयल अनुवाद अवश्य पढ़ी । हुनक कयल अनुवादक लिंक एतय देल जा रहल अछि : प्रवीण नारायण चौधरीक कयल मैथिली अनुवाद

         [कुमार सौरभ / 30.05.2016, 11:45 AM]