डॉ०
लक्ष्मणझा, आदरणीय लखन जी, मिथिलाक ओ विभूति, भारतक ओ सपूत छलाह जकरा पर मिथिले नहि सम्पूर्ण भारतके गौरव छैक। ओ
सात्त्विक गुणक साकार रूप ओ सात्त्विक विचारक मूर्तिमान स्वरूप लाह। हुनक
आहार-व्यवहार तथा वेश-भूषा सर्वथा सात्विक छलनि। साफ च्छ धोती आ उज्जर दपदप तौनी
हुनक मुख्य परिधान छलनि, जे भव्य भालक अभाग छरहर देह मे
बहुतनीक लगैत छलनि।
स्वच्छ विचारक अनुरूप व्यवहार हुनक जीवन-पद्धतिक विशिष्ट अंश छलनि।
अपन सिद्धान्तक विपरीत दोसर विचार सँ समझौता नहि करब हुनक अभ्यास छलनि।
हमर अग्रज प्रख्यात अभियन्ता प्रो० राजेन्द्रमिश्र आ डा० झा समवयस्क
छलाह। दूनू व्यक्ति 1949-50 ई० मे उच्च शिक्षा-प्राप्तिक हेतु, संगहि
लन्दनमे रहैत छलाह। डा० झा पी-एच०डी० डिग्री लए लन्दन से अपन देश वापस आबिरहल
छलाह। हम ओहि समय पटना विश्वविद्यालयमे छात्र छलहुँ।
भैया पत्र सँ सूचित कएलनि जे लखन जी पटना पहुँचि रहल छथि। कंचन भवनमे
डा० सुभद्रझाक संग ठहरताह। हुनकासँ सविस्तार समाचार ज्ञात होएत।
प्रायः 50 ई० क जनवरी छलैक। बारह बजे दिन मे हम डा० झा सँ भेटकरबाक हेतु कंचन भवन
गेलहुँ। डा. झा बाहर रौदमे पटिया पर बैसल, भीतर
पाकक्रिया मे संलग्न डा. सुभद्रझासँ , गप्प कए.
रहल छलाह। हम पैर छूबि प्रणाम करैत अपन नाम कहलियनि। आउ-आउ कहि स्नेहसँ अपने लगमे
बैसौलनि। ई अपन पी.एच.डी.क प्रसंग लन्दन मे अपन गाइडक संग सैद्धान्तिक मतभेद पर
बात कए रहल छलाह। एही प्रसंग ई डा. सुभद्रझासँ कहलथिन जे हम अपन गाइड केँ 'हरदी' बजाइएक छोड़लियनि। ओहिना मन अछि, डा. सुभद्रझा कड़छु मे देल कड़ू तेल, सरिसौ, मिरचाइ के चुलहा पर पटकि, भीतरसँ दौड़ि 'लखनजी अओ लखन जी' बहुत दिनुक बाद हरदी बजएबाक
बात अहाँ मुहें सुनल अछि, ई कहैत हुनका भरि पाँज पकड़ि
पटियापर बैस गेलाह। किछुकालक बाद कहलथिन जे आलूक साना तैयार अछि, भात भइए गेल अछि। आब चलू बिनु छौंकले दालिक संग भोजनकए पटना मार्केट चली आ
ओतहि अहाँ केँ तौनी कीनि दी। भोजनकए जाबत सुभद्र बाबू गंजी, कुर्ता पहिरि बाहर आअएलाह, ओही बीच डा. झा
संक्षेपमे लन्दनक समाचार आ भैयाक कुशलादि कहलनि। हुनक उक्तिमे अग्रजक स्नेहक
अनुभूति भए रहल छल।
दूनू डाक्टर लगले पटना-मार्केट चललाह। हमहूँ पाछाँ लागल मार्केट धरि
अएलहुँ। ओतए एक दोकान पर ''यहाँ
सभी प्रकारके वस्त्र मिलते हैं" एहन साइन बोर्ड देखि ओकरा सँ तौनी मंगलखिन।
प्रायः तौनीक अर्थ नहि बूझि ओ कहलकैन 'नहीं है'। एहिपर दूनू गोटे एकस्वर सँ कहलथिन जे यातँ तौनी आनू या अपन साइन बोर्ड
के उठाक फेकू। ई लोकनि तौनी क बदला चादरि मांगलए तैयार नहि। दोकानदार तौनी बुझैत
नहि। अन्ततः ओ अनुनय विनय पूर्वक कलजोड़ि हिनका लोकनिकेँ विदा कएलक।
डा. झाक जीवन-यात्रामे विपरीत परिस्थितिक संग समझौता नहिकरबाक हुनक
अटल सिद्धान्त हुनका कतहु विशिष्टपद पर स्थिर नहि रहए देलकनि एहि बातक सविस्तार
चर्चा डा. सुरेश्वर झा हुनक परिचयक प्रसंग कएने छथि।
हम बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर मे जखन संस्कृत छात्र संघ तथा
मैथिली छात्र संघ दूनूक अध्यक्ष छलहुँ तखन दूनू संघक संयुक्त वार्षिक अधिवेशनमे
संस्कृत मैथिली दुहुक ज्ञाता विद्वान केँ अध्यक्षता करबाक हेतु आमन्त्रित करतै
लियनि। ओहिक्रममे एक बेर डा. लक्ष्मणझा अध्यक्षताक हेतु आएल छलाह। विहार
विश्वविद्यालयक विद्वन्मण्डलीमे डा. झाक अध्यक्षीय भाषण बहुत विशिष्ट भेल छलनि।
मैथिलीक प्रसंग हुनक बहुत उपादेय सुझाव सब भेल छलनि। ओहि अवसर पर
मैथिली-कविसम्मेलनमे अनेक मैथिलीक कवि आएल छलाह। हुनक सुझावक बादो कविलोकनि
मार्ग-व्ययक रूपमे विदाई नेने छलाह से डा. झा देखैत छलथिन।
सबके गेलाक बाद जखन हुनका मार्ग-व्यय मात्र लेबाक आग्रह कएलियनितँ
कने रुष्ट भए ओ कहलनि-''हमरो
कविए बूझि लेलहुँ की? हम मौन भए सब सूनि प्रणाम
कएलियनि। रिक्शा पर संगमे बैसि बस-स्टेण्डधरि आबि, बसपर
चढ़ाए पुनः प्रणाम कए वापस भेलहुँ।
1978 ई.
मे जखन ओ “मिथिला' विश्वविद्यालयक
कुलपति छलाह, तखन 8 मार्च,
78 के हम हुनक बेलाक पुरना डेरामे भेट करए गेल छलियनि। 11 बजे
दिनक समय छलैक। ओ आंगनक चापाकलमे चाउर धो रहल छलाह। चुलहापर अदहन खौलाइत छलनि।
कहलनि-अहाँ बैसू। हम चाउर लगाक ओहिमे आलूदए देत छियैक तखने अहाँ सँ गप्प करब।
हमर जिज्ञासा भरल आँखि देखि ओ कहए लगलाह-विश्व विद्यालयक नोकर, भनसिया के अपन काज नहि करए
दैत छियैक। हम कतेक दिन कुलपति रहब तकर कोनो ठेकान नहि। कर्पूरी के कहि देने छियेक
जे कखनहु हम छोड़ि देब। एही कारणें कुलपति-निवासमे नहि रहैत छी। मदनेश्वरजी ओहिमे
रहि बहुत राहड़ि लगौने छलाह। तैयार होयबासँ पहिने छोडिकs चल गेलाह। हम तैयार कराए, सबटाके उचित मूल्यपर
बेचि विश्वविद्यालयक कोशमे जमा करवा देलियैक अछि। हम कहलियनि-अपने जखन वेतनो मे
केवल एकेटा रूपया लैत छियैक, तखन और वस्तुक कोन बात।
'हैँ, हमर इहोशर्त मानिएकए
कर्पूरी हमर नियुक्ति कएने अछि'। जनैछी, आइ कालि, जे मध्यम मार्गी लोक अछि सैहटा कुलपतिक
पदपर बनल रहि सकैत अछि। हम जनैत छी जे हम एकभगाह लोकछी। कतेक काल धरि कतए रहब तकर
कोनो ठेकान नहि। मन पड़ैत अछि, राजेन्द्र बाबूक संग
लन्दनक ओ जीवन दूनूगोटे ओतए बड़ प्रसन्न रही।
ताधरि चाउर सिद्ध भएगेल छलनि। आलूक साना बनौलनि। हमरो पुछलनि। ओहि
दिन दालि नहि बनौने छलाह। आलूक सानाक संग प्रेमपूर्वक भात खएलनि। किछु काल गप्प कए
विश्वविद्यालय विदा भेलाह। प्रायः साल भरि रहि, पुष्कर पलाश वन्निलिप्ति, ओ कुलपति पदकेँ त्यागि देलनि।
हम जखन संस्कृत विश्वविद्यालयमे कुलपति छलहुँ, प्राय: 84 ई.क बातथिक, डाक्टर साहेब अस्वस्थ भए दरभंगा
मेडिकल कॉलेज अस्पतालक पेयिंग वार्ड मे छलाह। भेट करए जाइत छलियनि। जखन स्वस्थ भए
ओतए सँ अएबाक दिन निश्चित भेलनि तँ हम निवेदन कएलियनि जे एतएसँ जएबाकाल हम गाड़ी
नेने आएब आ डेरापर पहुँचादेब।
ओ कहलनि-गाड़ी अहाँक अपन ते नहि थिक। विश्व विद्यालयक गाड़ी सँ ओना
जाएब ठीक नहि। कोनो व्यवस्था भए जएतैक। अहाँ केँ एहि हेतु बहुत-बहुत साधुवाद।
अन्तिम भागमे डा. झा मोहनपुरमे एक इष्ट व्यक्तिक डेरामे रहेत छलाह।
एकदिन ओतए भेट करए गेल छलियनि। कहलनि जे आइकालि एकमास एतए, एकमास गाममे रहैत छी। गाम गेल छलहुँ। हमर भौजी, जनिका हमरा प्रति बहुत स्नेह रहैत छनि आ पूर्वमे हमर कुलपति रहबाक भावनो
रहैतछनि, कहलनि जे एहिवेर अपना खेतये धान बहुत कम भेल।
खेसाड़ी बढ़ियाँ भेल अछि। खेसाड़ी बेचिकए, थोड़ेक चाउर
लए लैत छी। हम कहलियनि अपना खेतमे जे उपजल अछि हम सैहटा खाएब। खेसाड़ीक रोटी हमरा
नीक लगैत अछि। हमर बात मानि ओ खेसाड़ीक रोटी बनबैत रहलीह।
डाक्टर साहेबक एक अन्तरंग मित्रसँ एकदिन हम पुछलियनि-डा. साहेब
वैवाहिक जीवनसँ एना विरक्त कियैकरहलाह। ओकहलनि-जखन लखनजीक ओ अवस्था छलनि ते
हुनकासँ ई जिज्ञासा कएने छलियनि। ओ कोनो संस्कृतज्ञक मुहेँ सुनल एक श्लोक सुनौलनि-
“जनितो मनुजो द्विपदस्तु सदा, प्रियया सहितश्चतुरंग्रिरभूत् पशुवत्,
जनितेन सुतेन च षट्चरणो भ्रमतीह पुनर्भुवि षटपदवत्।
तनयात् तनयः प्रभवेच्च यदा अरूणद्धि स्वयं मकरीकृमिवत्
अधुनापि मनुष्य तनुं विदधत्किमु संभज नन्दसुतं मुनिवत्।।'
विवाह
सँ पूर्व लोक 'द्विपद
मनुष्य' रहैत अछि। पाणि ग्रहणक बाद और दू पैर क संग 'चतुष्पद' पशु-तुल्य भए जाइत अछि। जखन सन्तति
होइत छैक तखन और दू चरण जोड़ि 'षट्पद भ्रमर' क समान बनि जाइत अछि। सन्तति सँ जखन सन्तति होइत छैक तखन मकड़ाक जालमे
फँसि जाइत अछि। जाधरि मनुष्य-शरीर धारण कएने रहैछ तावतेधरि मुनिजन जकाँ ईश्वरक
ध्यान कए सकैत अछि। तपस्वी मुनि जौं नहियो बनि सकी तँ मनुष्यधरि बनल रही, ई अभिलाषा अछि।' एहिसौं डा. झाक मनोभाव केँ
जानल जा सकैछ।
'हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता' जकाँ डॉ. लक्ष्मणझाक जीवन-कथा अनन्त अछि। हुनक जीवन-यात्रामे सबसँ पैघ
विशेषता ई देखल गेल अछि जे ओ जाहि सिद्धान्त के मानैत छलाह ओकर अक्षरशः अपन जीवन
मे अनुपालन करैत छलाह। ' त्यागात् शान्तिः'' एहि तथ्यकेँ मानि आजीवन त्यागीबनि निष्काम कर्म करैत रहलाह। ''ज्ञानं भारः क्रियांविना'' एकरा बुझैत अपन
ज्ञानकेँ व्यवहारमे चरितार्थ करैत रहलाह। कामपर विजय प्राप्त कए क्रोध ओ लोभकेँ
निरस्त करैत रहलाह।
“यस्तु
क्रियावान्पुरुषः स विद्वान!" एहि सदुक्तिक ओ ज्वलन्त उदाहरण छलाह। एहन त्यागी, तपस्वी, मनस्वी, मनीषीक पुण्य-स्मृतिमे “विचार चिन्तामणि' क प्रकाशन अत्यन्त श्लाध्य
प्रयास थिक। एहिमे डा. झाक मिथिला, मैथिल, मैथिली क उत्थानक दिशा मे सुचिन्तित विचार संकलित अछि। देशक राजनीति, शिक्षा, दीक्षाक प्रसंग हुनक भावना संगृहीत
अछि। हुनक प्रकाशित, अप्रकाशित कृतिक विषयपर सूचना
देलगेल अछि। हुनक जीवन-यात्राक सविस्तार प्रामाणिक विवरण प्रस्तुत कएल गेल अछि।
एहिमे हुनक अपन कटु-मधु अनुभवक दिग्ददर्शन भेटैत अछि।
एतदर्श डा. सुरेश्वर झाजीकेँ शतशः साधुबाद दैतछियनि जे ओ बहुत
परिश्रम आ पूर्ण मनोयोग सँ सब सामग्री केँ संकलित कए पुस्तकाकारमे एकरा प्रस्तुत
कएने छथि।
विश्वासअछि, वर्तमान
संघर्षमय जीवनमे लोक एहि “'चिन्तामणि'' क प्रकाशमे चिन्ता सँ दूर रहबाक प्रयास करत। इतिशम्।
[अनन्त चतुर्दशी/12-9-2000]
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