मैथिली कथा साहित्यक एकटा प्रतिष्ठित नाम थिक- धूमकेतु । हुनकर एतय प्रस्तुत कएल जा रहल आत्मकथ्य केँ महत्वपूर्ण मानबाक कतेको कारण छै । एहिसँ धूमकेतु, हुनक निर्माण, हुनक परिवेश, हुनक दृष्टिकोण आ हुनका बहाने मैथिली
साहित्य आ मिथिलाक इतिहासक कतेको आन प्रसंग केँ जानबाक अवसर भेटैत छैक । एहि
आत्मकथ्यक सबसँ पैघ विशेषता छै, धूमकेतुक स्पष्टवादिता आ रचनात्मक ईमानदारी । धूमकेतु अपन सामंती संस्कार आ ताहिसँ निकासक छटपटाहटि केँ
तँ स्वीकार करिते छथि, अपन पिताक व्यक्तित्व केर द्वैत्व केँ
साफ-साफ प्रकट करबा सँ सेहो, हुनका कोनो परहेज नहि छन्हि ।
धूमकेतुमे आत्ममुग्धता आ आत्मप्रचारक प्रवृत्तिक नितांत अभाव देखार पड़ैत छैक,
जकरा सामान्य मैथिल संस्कारक अपवादे कहल जा सकैत अछि ।
एहि आत्मकथ्यक पहिल प्रकाशन कतय भेल छलहि, वा एकर मूल स्रोत की थिकै, से हमरा नहि बूझल अछि, मुदा एतय स्रोतक रूप मे ‘देसिल बयना’, हैदराबादक जाहि स्मारिकाक उपयोग कयल गेल छैक ताहि मे एकरा राँचीसँ प्रकाशित पत्रिका ‘रचना’क अक्टूबर-दिसम्बर, 2003 अंक (पृष्ठ 4-6) सँ साभार लेबाक सूचना देल गेल छैक ।
अपन अयनामे धूमकेतु
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धूमकेतु
[पृ.-51]
जन्म हमर एहन परिवारमे भेल जतए समय
बिताएब पहाड़ रहै छै । शरीरसँ कोनो काज करब हीन ओ करबाएब चतुरता मानल जाइत छैक ।
तज्जन्य हानि तँ बहुत भेलए एकाधटा लाभो देखैमे
अबैत अछि । जेना अखराहापर छड़ीक हाथेँ पठाओल गेल छी । मामूली गायन कियो अशुद्ध कऽ
लेता तँ से नै बुझैमे आओत, से बात नै । आ सभसँ पैघ
लाभ जे खिस्सा-पिहानी, पुस्तक- पत्रिकाक सान्निध्य बड़ नेनासँ
रहल । पहिल शिक्षक छला - रानी टोलक पंडित घनानन्द झा । ‘लोटा’ शब्दक सन्धि-विच्छेद धरि ओ मोन पड़ैत छथि । विद्या-व्यसनी केहन छला जे
हुनक लिखल ‘घटकराज’
गोत्र-मूल-पाँजि आदि-आदि लौकिकताक पोथी घर-घर पहुँचल । अक्षरक ज्ञान
हमर माइयोकेँ छलनि । पिता एकटा प्रेस संचालन करैत छला । विचारसँ गाँधीवादी छला,
क्रियासँ सामन्त, तेँ शरच्चन्द्र आ
प्रेमचन्द्र हमरा बहुत नेनासँ उपलब्ध होइत रहला । ‘चाँद’क फाँसी अंक हम पिताक तकिया तरसँ चोरा कऽ माइक सेवामे प्रस्तुत कऽ चुकल छी
। हमरा लगैत अछि, अइसभ वातावरणक प्रभाव हमरा अवचेतनमे
साहित्यक प्रति लगावकेँ जन्म देलक । तेँ फरिछा कऽ कहबो केलौं । तकर बाद जे मोन
पड़ैत अछि, से अही लगावक विस्तार ।
राज
इसकुल दरभंगाक जीवन पहिले पहिल ‘मैथिली’ शब्दसँ परिचित करौलक । हमर
बाल-मन अवश्य गौरवान्वित भेल छल जे ओ जे हम बजै छी, एकटा
भाषा थिकैक । कुमार गंगानन्द सिंहक आवास ‘सचिव सदन’ कहबनि । प्रायः अइ लेल जे ओ महाराज दरभंगाक आप्त सचिव छलथिन । राजेक
बंगलामे रहैत छलथिन । बड़कीटा नेमप्लेटक नीचाँमे ‘रईस,
श्रीनगर’ लिखल छलैक, ‘आप्त
सचिव’ नै । कुमार साहेब बिहार राज्य हिन्दू महासभा आ नैशनल
वार फ्रन्ट, दुनूक राज्याध्यक्ष छला । संगहि तत्कालीन जे
साहित्यकारलोकनि छलाह तनिक आवागमन निरन्तर होइत रहनि । जे सचिव सदनक छात्र बाटहुमे
भेटैत रहलाह ताहिमे हीरानन्द शास्त्री (आर्यावर्तक पूर्व सम्पादक) आ जितेन्द्र किशोर
झा (टिस्कोक जनसम्पर्क अधिकारी) स्मरण अबैत छथि । जहाँ धरि मोन पड़ैत अछि, रचैक स्पृहा जेना ओइ बएसमे सभकेँ होइत छैक, हमरो भेल
। महाराजाधिराज, दोसर विवाह मंगरौनी केने छला आ दरभंगासँ
मधुबनी धरि स्पेशल ट्रेनमे बरियाति साजि कऽ कोबर करए मंगरौनी जाइत छला । ताहि शुभ
अवसरपर आदरणीय गोलोकवासी मधुपजी कोबरगीत लिखने छला आ महाराज पाँच सए टाका पुरस्कार
देने छलथिन । अयनामे जे पहिल हर्षित चेहरा उभरैत अछि, से अही
बातपरक । प्रभाव केहन जे ओ रचना जे हम तत्काल प्रारम्भ कऽ देने रही सरकारमे दाखिल
करैक लेल, तकर पाँती एखनो मोन अछि, यद्यपि
अर्थ लगेबामे अपनो असौकर्य होइत अछि –
अहि-रिपु-पति-तिय
सदसानीन
उर-
माला- कर- शोभित बीन
गोपी – वल्लभ
श्रीभगवान
रचल
काव्य धय हुनके ध्यान
ई
नै बुझि लेब जे ई पाँती हमर ‘मा निषाद
प्रतिष्ठां’ थिक । डंड-बैसक पहिनोसँ प्रारम्भ छलैक ।
ओहि
समयक एकटा घटना मोन पड़ैछ । बीचमे ई बुझि लेबाक थिक जे सचिव-सदन साहित्य आ भाषा -
हिन्दी आ मैथिली - दुनूक केन्द छल । दिनकर आ राजा राधिकारमण अधिक काल पाहुन होइत
छला । आचार्य रमानाथ झा, डॉ. सुभद्र झा, पंडित जयदेव मिश्र घंटो ओइ विवादमे प्रत्येक दिन शामिल होथि जे मैथिली वा
हिन्दी भाषा-साहित्यक अभ्युन्नतिक लेल [पृ.-52]होइक ।
ताही दिनुक एकटा आर चित्र उभरैत अछि । शिशु मैथिली साहित्य परिषदक स्थापना
दरभंगामे कयल गेल छलैक । उद्येश्य छलैक गामक प्राइमरी स्कूल धरि मैथिलीक चेतना
जगाएब । मधुबनीमे प्रथम सम्मेलन भेल छलैक । अध्यक्षता केने छलाह प्रयाग विश्वविद्यालयक
राजनीति विभागक छात्र पंडित चेतकर झा आ स्वागताध्यक्ष छलाह राँटीक श्रीमान् बाबू
साहेबक बालक । जहाँ धरि हमरा मोन अछि, प्रायः 1945 ई. मे । हमरालोकनि राज स्कूल दरभंगासँ डेलीगेट भऽकऽ गेल रही - मणी भायक
नेतृत्वमे । कवि-गोष्ठी आयोजित भेल छलैक । हमर रचना जे शास्त्रीजी गढ़ि देने छलाह,
से ट्रेनसँ पौदानपर यात्रा करैक हीरोपनीमे उपरका जेबीसँ कतौ उड़ि गेल
। स्मरणसँ हबड़-हबड़ लिखि तँ लेलौं मुदा बात जमलै नै ।
अही
सभ कूद-फानमे भेलै जे आइसँ हमसभ आजाद । ने लाहौर हमर, ने ढाका । छौंड़ासभ साँस छोड़लक चल भाइ, परीक्षामे
भारतक नक्शामे लंका-वर्मा छुटि गेने आब नम्बर नै कटतौ ।
स्वातंत्र्योत्तर
काल हमर वैचारिक स्थिरता काल छल, तेँ
उद्वेलनो चरमपर छल । अही कालमे हमरा लागल छल जे आचार्यलोकनिक देखाओल उद्येश्य आब
काव्यक नै भऽ सकैत अछि । शोषण-उत्पीड़न केर अर्थ बुझऽ लगलियैक । बताह पतिक संग
एकसरि रहैत बहिनिक सुख-दुख देखलियनि । ओइ विशाल सामन्ती परिवार, जकर पूर्वमे चर्चा कएल अछि, तकर धूरीमे अपन माए देखा
पड़ली । गंगाइक पीठपर हमर गाँधीवादी पिता द्वारा बरिसाओल छड़ीक दागपर माएक देल
नारिकर तेल लऽ जाइत हमरा कोनो विद्रोहक भाव मोनमे आएल हो, से
नै मोन पड़ैत अछि । मुदा हम जाहि कालक जिक्र कऽ रहल छलौं, ताहिमे
हमर मन ई निश्चित रूपसँ मानि लेलक जे हमरालोकनिक उद्धारक मार्ग मात्र मार्क्सवादी
चिन्तनधारा भऽ सकैत अछि । उद्धारसँ हमर तात्पर्य दूटा अछि - पहिल, प्रचलित जीर्ण सामाजिक मूल्यसँ जे समसामयिक विडम्बनाक व्याख्या नै कऽ सकैत
अछि आ दोसर जे मनुक्ख स्पष्ट रूपेँ मनुक्खक रूपमे स्थापित हो ।
अयनामे
जे चेहरा उभरैत अछि, से हाटक गाछीमे टएर गाड़ीपर
ठाढ़ भऽकऽ बहुत फड़कैत अल्फाजमे बहुत आग्नेय कविक वा सकरीसँ जयनगर धरि बिना टिकटक
यात्रा, ‘जनशक्ति’क प्रति बेचैत,
नौटंकी स्टाइलमे शेर पढ़ैत कविक । अही कालमे मैथिलीसँ संग छुटि गेल ।
कतए की भऽ रहल छैक, उत्सुकतो खतम भऽ गेल । किछु उल्लेखनीय
भैयो नै रहल छलैक । अही कालमे आदिवासी क्षेत्रमे कार्य करैत हमरा अनुभव भेल छल जे
मातृभाषा कतेक महत्त्वपूर्ण थिक । कानून बना कऽ अंग्रेज अंग्रेजीएमे राजकाज चला
गेल । मुदा, मनुक्खक जाहि मुक्तिक चर्चा हम ऊपर कएल अछि,
से बिना मातृभाषाक कोना हएत? हमरा, मैथिलीमे एकटा सांस्कृतिक क्राइसिसक बोध अही कालमे भेल छल ।
मिथिला-मैथिल-मैथिली - हमर बाल मनपर ई अभिलेख छल । आ एकर उपयोगिता लोकक संग काज
करैत काल बुझने छलियैक । हम आइयो एहि बातकेँ मानैत छी जे, जँ
मिथिला तँ ताहिमे रहैवला मैथिल आ तनिक भाषा मैथिली । जनतंत्रमे सरकारो अही क्रममे
जन तक पहुँचि सकत आ जन सेहो अपन सरकार अपने बना सकता । अही मानसिक स्थितिमे हम ‘आज पावस की निशा में फिर तुम्हारी याद आई ’सँ बाहर भऽकऽ ‘ई देवता छथि पाथरक खएता मुदा
मिष्टान्न हलुवा’ धरिक यात्रा केने छलौं ।
तकर
बादक जे अयना अछि ओहिमेक चेहरा सभकेँ देखा पड़ैए । हम बलौं ओकर बखान करी, बहुत झंझट ।
सभ
छान-पगहा तोड़ि-ताड़ि जखन हमरा अपन पारिवारिक ताना-बाना आर्यावर्तक उपसम्पादकी छोड़ा
कऽ जनकपुर पहुँचा देलक, आटा-दालिक भाव बाजारमे
बूझब अनिवार्य भऽ गेल । ता ‘मिथिला मिहिर’ सेहो उपलब्ध भेल । ‘मिथिला मिहिर’ माने एहन अयना, जाहिमे सभक चेहरा झक-झक देखाइए । ओकर
फाइलसँ ई बात बुझल जा सकैत अछि । हमर चेहराक रंग बदलल लागत 1965क बाद । ओतय हम अपन मौलिक रूपमे छी । जे संचित अर्जित लबादा छल, प्रायः हम ओइसँ बहरेबाक यत्न करैत रहल छी । सीता, जे
हमरालोकनिक आदर्श थिकी, ओ समस्त मैथिलानी जातिकेँ आइ दुर्गतिक पराकाष्ठापर पहुँचा देने छथि । प्रत्येक मैथिलानीमे जीबैत [पृ.-53]सीताक समर्पण-भावनाकेँ अपमानित-लांछित
होइत देखि कऽ हम चुप नै रहल छी - 1951मे प्रकाशित अपन ‘दीदी’ कथासँ लऽकऽ आइ धरि ।
स्वजातिकेँ
वस्तु बनाकऽ ओकरा संगेँ पशुवत व्यवहार हमरासभक एहन परम्परा थिक, जाहि दिस कनेको ध्यान नहि जाइत अछि - नै, स्त्रीजातियोक
नै । अही वितंडावाद सभपर प्रकाश दैत
एकटा कविता लिखने रही - ‘एक बेर फेर राजधानीमे ।’
भीम बाबूकेँ देलियनि । मुदा ओ जब्त भऽ गेल । दू वर्षक बाद देवीजी
हटली तँ भीम भाइकेँ प्रकाशित करैक अनुमति भेटलनि । अनुमतिक बातपर एकटा आर बात मोन
पड़ैत अछि - ‘अगुरबान’क प्रकाशनक बाद जे
पत्र आयल ताहिमे एकटा ललितजीक सेहो छल । लिखने छलाह - ‘मनुक्खमे
कतौ देवतो छैक, तकरो अन्वेषण हेबाक चाही ।’ प्रतिक्रियास्वरूप एकटा खिस्सा लिखाएल - ‘मनुक्खक
देवता ।’ अइ बेर सरकार नै, प्रकाशक
जब्त कऽ लेलनि । ओ हेराइए गेल । बहुत बाद भऽकऽ संयोगसँ ओकर प्रति भेटल, तेँ बाँचल । जे-से ।
प्रायः
1966-67मे आदरणीय किसुनजी सुपौलमे आधुनिक मैथिलीक शंख फुकने छलाह । हम प्रारम्भसँ
पत्राचार द्वारा समस्त कार्य-कलापसँ जुड़ल रहलौं । मुदा ऐन अधिवेशनक समय हमरा
अगत्या सिमरियामे बिताबए पड़ल छल । मुदा धीरू बाबू (प्रो0
धीरेश्वर झाजी) हमर एकटा कविता लऽ गेल छलाह आ सभामे बाँचनौ छला । जे प्रतिक्रिया
कहैत आएल छला ताहिसँ हमर अद्यावधि विश्वास अछि जे कविताक संवेदनशील श्रोताक मादे
सुपौल सभसँ आगू अछि । सुपौल नै जा सकबाक मजबूरी अन्ततः हमर मूक भऽ जेबामे फलित भेल
छल । जँ अनिवार्यतः शब्द वापसो आएल तँ अनिवार्ये कार्यक हेतु । वैह मजबूरी हमर
व्यक्ति, दृष्टि, रचनासभसँ परिलक्षित
हएत।
अयनामे हमर एकटा नव चेहरा उभरैत लगैत अछि । एकटा प्रौढ़ धूमकेतुक । समस्त
घृणा-उपेक्षाक बीच भगजोगनी जकाँ अपनेमे जरैत धूमकेतुक । एहन धूमकेतुक जनिक
चेहरा सभकेँ स्पष्ट देखाइत छनि । अपनेसँ व्याख्याक आवश्यकता की? मित्रगणक विशेष चर्चा हमरा कखनो अभीष्ट नै रहैत अछि । ओना बाबा आ अपन
बीचमे हमरा दूटा धूमिल चेहरा अयनामे झलकैए - माथुर आ राघवाचार्य । मुदा हम,
ने मैथिली साहित्यक अध्येता छी, ने ओकर
इतिहास-भूगोलक ज्ञाता । जे रचै छी से मैथिलीमे, कारण हमर जे
रचना-उपकरण छथि, जनिक हमरा प्रत्यक्ष ज्ञान अछि, से मैथिल थिका आ मैथिली बजै छथि । तेँ हमर दृष्टिदोषक व्याख्या तँ कोनो
मैथिलीदाँए कऽ सकता ।
अयना-
2
जैनेन्द एकटा महाग्रन्थ लिखने छथि - ‘समय और हम’। मोनमे अबैत अछि, समय
तँ हमरहुसँ गुजरल अछि । एकटा निश्चित तिथिकेँ जे प्रकट भेल से समयसँ बाहर जाएत कतए?
आ कालेक एकटा निश्चित अवधिमे तिरोहितो भऽ जाएत । मतलब जे समयसँ
मुक्त क्यो नै अछि । अवतारो नै, मसीहो नै । हम तँ कहब जे
कालदंशे व्यक्तिकेँ
भाववाचकताक अभिव्यक्ति दैत छैक, ‘त्व’
जोड़ि कऽ ।
जे-से
। मुदा ई अधिक काल होइत रहैत अछि जे मैथिलीक ओ कोन दंश थिक जे हमर अनन्य
घूमकेतुकेँ प्रकट केलकनि, आ हमरा व्यक्तिकेँ एकटा ‘त्व’ दऽ देलक। कथा-कविता तँ नै आ जे बहुत गम्भीर
आलेख तँ सैकड़ो प्रस्तुत केने हएब । मुदा ओ सभ हमर थिक, घूमकेतुक
नै थिकनि, घूमकेतुक ‘त्व’ हमरासँ प्रखर छनि । मुदा डंक तँ हमरे लागल अछि । की थिक ओ?
रोटी
कमा लैक लेल जे भाषा सहयोग देलक से हँसी लागत, अंग्रेजी रहल अछि । लीखि-बाजि लेबाक लूरि मजबूरी ।
तखनि? मैथिलीक ई दंश?
आ जहर आपादमस्तक व्याप्त? हमरा लागल एकर उत्स,
कतौ ने कतौ कालप्रवाहमे अवश्य हेबाक चाही ।
मधुबनी
शहरमे लघुसिंचाई योजनक जे ऑफिस छैक, ततएसँ लऽकऽ करीब-करीब पुल [पृ.-54]धरि टटघरमे स्थापित एकटा प्रेस छलैक,
‘मैथिल प्रिंटिंग वर्क्स’। आइ कहि सकै छी जे
ओकर व्यवस्थापक हमर पिता छला । ताइ दिन नै
बुझियै, ओ की छला, मुदा जे लोक आबनि,
ताहिमे मैथिलीयो किताब छपाबैबला रहथि । स्वाभाविक छलै, जे-जे खिस्सा-पिहानी छपै, से एक प्रति हमरा माताकेँ
उपलब्ध भऽ जाइनि । गोनू झाक चुटुक्का ‘गोनू विनोद’ नामसँ छपल छलनि । प्रायः तीन कि चारि भागमे । दुपहरियामे ओकर परायण समय
काटबाक पारिवारिक शगल रहैक, प्रायः ई पहिल दंश हो । कारण प्रारम्भिक
प्रतिक्रिया हमरो यैह छल जे मैथिली हास्य-विनोदक द्वारा सरकारक मनोरंजनक अतिरिक्त
आर किछु करबा जोग नै अछि । ताहि दिन ओही प्रेससँ ‘माधवी-माधव’
छपल छलैक । हमरा मोन अछि, नायिकाकेँ अपहृत
करैक चेष्टासँ पूर्व ओकरालोकनिक वार्त्तालाप हमर बहीनसभ बरमहल दोहरबैत रहथिन ।
अपना
होइए जे ओइ दिनमे तँ बड़ नेना रही । हमर पिता पोन परक कलकलि कार्बोलिक साबुनसँ धो
देता, ताहि लेल हुनका बहुत परिश्रम करबियनि ।
तखन फेर ई उपन्यास? मैथिली? ओना हमरा
बुझने दंश ओही बएसक सभसँ कड़गर होइ छैक । तत्काल बोध नै हो, से
बात फूट । हमरा तँ लगैत अछि जे राज
स्कूलमे भर्ती भेलाक बाद मैथिलीक दोसर दंश कतौ अही लेल ने कहीं बेसी व्यापने होअए
जे ओकरा प्रेसबला कालक जहरकेँ मात्र पुनः सक्रिय करऽ पड़लैक । राज स्कूलक वातावरण
मैथिली केन्द्रित छलैक । ओकर प्रधानाध्यापककेँ हिन्दियो ने बाजऽ अबैन । ओना ताइ
दिन स्कूलिंग केर प्रयास तँ सभ स्कूलमे रहै मुदा जाहि कालक राज स्कूलक चर्चा हम कऽ
रहल छी, तकर जोड़ा नै रहै । ओइ स्कूलमे स्वभावतः राजसँ
सम्पर्कित व्यक्तिक वार्डकेँ स्थान भेटैक, डिस्टिक बोर्डक
मिडिल परीक्षाक सर्टिफिकेटक आधारपर । मायानन्द मिश्रजी छला, हमरालोकनिसँ
बड़ सिनियर । संयोगात द्वितीय श्रेणीमे उत्तीर्ण भऽ गेला । विद्यालय त्यजन
प्रमाण-पत्र हुनका पठा देल गेलनि, कैम्पसमे नै प्रवेश पाबि
सकला । ऑफिस एबाक चर्चा कोन! स्वैच्छिक-शैक्षिक
अनुशासनक दृष्टिसँ एन.के. घोष सनक शिक्षक देखल नै ।
मैथिलीक
मादे कहैत छलौं जे मैथिली स्वैच्छिक वातावरणक केन्द्रमे छलै । दरभंगा राजक दिससँ
मैथिली भाषा-साहित्यक हेतु पटना विश्वविद्यालयमे ‘रमेश्वर चेयर’ कऽ देल गेल छलैक । आठवाँ वर्गमे
मैथिली, संस्कृतक विकल्प रूपमे स्वीकृत भऽ गेल छलैक । पं.
जयदेव मिश्र, चं.मि. महाविद्यालयमे मैथिलीक व्याख्याता
नियुक्त छला । पाठ्यपुस्तक दारिद्र्य-बोध उपस्थित छलैक । आ अइ समस्त वातावरण बीच शलाका-पुरुषक
रूपमे छला - स्वनामधन्य कुमार श्री गंगानन्द सिंह । गणेशकेँ मैथिलीमे लम्बोदर कही
कि गजानन, ताहिपर विवाद चलैक । योगा बाबू ‘भलमानुस’क पहिल प्रति लऽकऽ ओतहि उपस्थित भेल छला ।
गुरुवर अमरजीक ‘गुदगुदी’ छपि कऽ ओत्तहि
पहुँचल छलनि । ‘भांग’
पीने शेरमशेर भुअंकर त्रिपुंड, बहुत प्रखर
जनौं, मुदा भुवनमोहिनी मुसकानबला फोटो फाइन आर्ट कॉटेजसँ बनि
कऽ ब्लॉक बनैसँ पूर्व ओतहि प्रदर्शित भेल छलैक । बगलमे राजक विशाल पुस्तकालय,
जाहिमे पंडित प्रवर रमानाथ झा जीक साधना । सात दिनपर एकटा कऽ मैथिली
रचना नेने प्रकट होमऽबला ‘राजगजट’ अर्थात्
‘मिथिला-मिहिर’ सेहो, कम काल नै, वातावरणकेँ उद्वेलित कऽ जाइ । स्वनामधन्य
सम्पादक पंडित हीरानन्द झा शास्त्रीक ‘धुनिञाक खोज’ जहिया छपि कऽ आएल छलैक, प्रायः एक बेर कऽ सभ पढ़ने
होएत ।
जाहि
समयक चर्चा कऽ रहल छी - 42क आन्दोलनक झमाड़
अंग्रेजी राजकेँ हिला देने छलैक । सम्भव थिक, युद्धकालमे
लागल छलैक, तेँ बेसम्हार भेल होइ । कुमार गंगानन्द सिंह
हिन्दू महासभाक प्रान्तीय अध्यक्ष छला । तेँ हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तानबला वातावरण
सभसँ मुखर छलैक । राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह, कामेश्वर सिंह
‘मस्त’ आदिकेँ पाँच दिन आबि कऽ रहबाक
अवसर होइनि, शिवपूजन सहाय, रामधारी
सिंह ‘दिनकर’, पं0 जगन्नाथ मिश्र, प्रिंसिपल बी.एन.ए. सिन्हा हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तानबला गोष्ठीक रत्न छला
। मुदा ओइ कालसँ निःसृत एकटा आवश्यकताक रूपमे मैथिली एलै आ पूरा राज्यकेँ एहि बातक
चिन्ता भेलै जे मैथिलीकेँ, ओकरा बढ़ाकऽ राखब चाहैत छलैक । तेँ, मिथिला-मैथिल-मैथिली
सेहो ओही सचिव-सदन मे रूप लैत छलैक । प्रभाव [शेषांश
पृ.-62]आ हाथ रमानाथ बाबूक छलनि । कॉलेजक छात्र-संघो की करितय?
सी.एम. कॉलेजमे पढ़ाइ छल - एकटा मात्र छात्र छल । स्मृतिसँ कहऽ कही
तँ हम कहि सकै छी जे हिन्दी-हिन्दू- हिन्दुस्तान तुराइए तर पता नै कखनि हमरा ई जहर
व्यापल । सम्भव थिक, प्रतिक्रिया भेल हो । मुदा हमरालोकनि
एकटा अखिल भारतीय शिशु मैथिली साहित्य सम्मेलनक पहिल अधिवेशन मधुबनीमे कऽ
छोड़ल ।
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स्रोत
मिथिला विभूति पर्व स्मारिका (भोलालाल दास आ धूमकेतु पर
केन्द्रित) तेसर विशेषांक
हैदराबाद – सिकन्दराबाद, 14 मइ, 2017
संपादक- चन्द्रमोहन कर्ण
प्रकाशक : देसिल बयना मैथिली साहित्य मंच, हैदराबाद-सिकन्दराबाद